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प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चन
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हैं, साथ ही अपने गूढ़ ज्ञान और अपार अनुभवों के आधार लिए निर्धारित ये सभी लक्षण स्वयं आपश्री में साकार पर सदा ही परहित में भी सक्रिय रहते हैं । भारत जैसे दृष्टिगत होते हैं । विशाल देश के चप्पे-चप्पे को आपश्री ने अपनी पदयात्राओं महाराज श्री का यह कथन भी आपश्री के व्यक्तित्व द्वारा पावन किया है और असंख्य-असंख्य जनों के कल्याण में स्थान प्राप्त कर सका है कि 'साधुत्व बाह्य तत्व नहीं, के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर रखा है । यह पर- अपितु आभ्यन्तरिक लक्षण है। बाहर से दृष्टि समेट कर हितैषिता ही परन्तप, पूज्यपाद पुष्कर मुनिजी महाराज को भीतर झाँकने की क्रिया ही साधक के साधु बनने की महापुरुषों की श्रेणी में स्थान दिलाने के लिए अकेली ही पहली सीढ़ी है।' और यथार्थ तो यह है कि चिन्तनशीलता पर्याप्त सिद्ध होती है।
के क्षेत्र में महाराज श्री का स्थान इस युग के सन्तों में
अद्वितीय है । परम विशेषता तो यह है कि गहन चिन्तन यह स्वीकार करते हुए अत्यन्त गौरव की अनुभूति द्वारा आपश्री ने जिन तत्वों और आदर्शों की उपलब्धि की होती है कि पूज्य महाराज श्री की गणना देश के महान है, उनका मात्र वाचिक प्रचार ही नहीं किया, अपितु स्वयं सन्तों में आदर सहित होती है। इस उपलब्धि का आधार अपने जीवन और व्यवहार में उनको अपनाया भी है और है आपश्री के चिन्तन और व्यवहार की समरूपता । साधु इस प्रकार अपने जीवन के उदाहरण द्वारा उनका औचित्य, का स्वरूप कैसा हो? इस विषय में आपश्री का मानस उपादेयता और उनकी व्यावहारिकता एवं सम्भाव्यता को सर्वथा सुस्पष्ट है । आपश्री के मतानुसार “साधु ज्योति सिद्ध भी किया है। चिन्तन और व्यवहार का यह अनूठा पुरुष होता है । दीपक वाणी द्वारा मार्ग का संकेत नहीं साम्य कतिपय सन्तों में ही दिखाई देता है और इस करता, अपितु वह तो मात्र प्रकाश व्याप्त कर मार्ग को विशेषता ने आपश्री के व्यक्तित्व में विलक्षणता और आलोकित कर देता है। साधु चरित्र भी तद्वत् ही होता महानता की स्थापना कर दी है। है। उपदेश द्वारा नहीं, अपितु अपने आचरण का आदर्श ऐसे तत्वज्ञानी, सच्चे सन्त, महामानव, सर्वजन हितैषी, प्रस्तुत करके जो अन्यजनों का कल्याण कर सकें, वही प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी, धर्म के सफल प्रचारक, यथार्थ साधु है।"
विभ्रान्तजनों के उद्धारक, कथनी-करनी के समता स्थापक, महाराज श्री द्वारा चिन्तित साधुत्व के इस स्वरूप का श्रमण संघ के कुशल संगठक, राजस्थानकेसरी परम पूज्य समग्रतः निर्वाह हमें स्वयं आपश्री में भी स्पष्ट दिखाई देता पुष्कर मुनिजी महाराज के चरणों में मस्तक ही नहीं, हृदय है। आप निसन्देह उच्चकोटि के सन्त होने का उचित यश भी श्रद्धा में नमित हो जाता है। आपश्री की चरण-वन्दना रखते हैं । साधु वह, जो पतितों के उत्थान में तत्पर रहे, से ही मन में एक अद्भुत शान्ति और शीतलता का संचार साधु वह, जो स्वयं कष्ट भोग कर भी अन्य को सुखी और होता है । आपश्री की महामानवता और समर्पित व्यक्तित्व सन्मार्गी बनाने में व्यस्त रहे।" आपश्री द्वारा साधुत्व के के प्रति कोटिशः वन्दन ।
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श्रमण-संघ को विभूति
0 श्री रिखबराज कर्णावट, एडवोकेट, जोधपुर पूज्य उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज के सम्पर्क में महाराज श्री के व्याख्यान व वार्तालाप की शैली मैं लगभग पच्चीस वर्ष से है। पहली बार मैंने जब पूज्य सीधी व सरल है। बिना किसी ऊहापोह के वे अपने हृदय पुष्कर मुनिजी के व उनके सुशिष्यों के दर्शन किये तो सभी के उद्गारों को प्रकट करते हैं, जो श्रोताओं के हृदय में के मुख से "पुण्यवान दया पालो" शब्द सुनकर एक विशेष गहरे पैठते हैं । महाराज श्री प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी प्रकार का प्रमोद हुआ। भगवान महावीर स्वामी के समय अपने प्रवचनों में सरल व बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग में भी दर्शनार्थियों एवं उपासकों को "देवाणुप्पिय" कहकर करते हैं । अपने व्याख्यानों में शिक्षाप्रद लघुकथाओं, चुटसम्बोधन किया जाता था। सम्बोधन के सौम्य एवं प्रेरणा कलों, लोकोक्तियों, कविताओं एवं भजनों का समावेश प्रदायक वचनों से आगन्तुकों पर जो स्नेह भरी गहरी छाप करके वे श्रोताओं को आनन्द विभोर कर देते हैं। महाराज पड़ती है वह स्थायी रूप से सम्बन्ध जोड़ने में बड़ी सहायक श्री की आवाज बुलन्द है जिससे बिना ध्वनि-विस्तारक होती है। महाराज श्री के शुभ सम्बोधन की छाप मेरे पर यन्त्र का सहारा लिये वे विशाल जनमेदिनी में भी अपने भी पड़ी। तभी से महाराज श्री से मेरा सम्पर्क बढ़ता व्याख्यानों का लाभ देने में सफल रहते हैं। रहा।
महाराज श्री समय का मूल्य जानते हैं। भगवान
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