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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
फिर निजधर्म है । निजधर्म की साधना तभी सम्यक् प्रकार हुआ हूँ। मुझे अपार आल्हाद है कि ऐसे महान् सन्त का से हो सकती है जबकि राष्ट्रधर्म की साधना सम्यक् होगी। अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। होना ही चाहिए । राष्ट्रधर्म और निजधर्म दोनों का मधुर समन्वय सुनकर क्योंकि गुणियों का अभिनन्दन करना भारतीय संस्कृति की मेरा हृदय आनन्द से झूम उठा । वस्तुतः ऐसे बहुत कम प्राचीन परम्परा रही है । मैं अपनी हार्दिक श्रद्धार्चना मुनि सन्त हैं जिनका चिन्तन इस प्रकार स्पष्ट हो।
श्री के चरणों में समर्पित करता हूँ कि वे पूर्ण स्वस्थ महाराज श्री से अनेकों बार अनेकों विषयों पर विचार- रहकर भूले-भटके जीवन-राहियों को सही मार्गदर्शन देते चर्चाएं हुई। मैं उन विचार चर्चाओं से बहुत लाभान्वित रहे।
महामानव राजस्थानकेशरी पुष्करमुनि जी महाराज
तर के तेज से दोharट मुक्त उज्ज्वल वाणी, इसके अतिहाकि जो जि
श्री जीतमल लूणिया [अजसेर] अन्तर के तेज से दीप्तिमान मुखमण्डल, उन्नत और ऐसा ढाला है कि स्वयं ही महानता की साकार परिभाषा प्रशस्तभाल, अन्तर-भेदिनीदृष्टि मुक्त उज्ज्वल नेत्र, हो गये हैं, महापुरुषों के लक्षणों के मूर्त उद्धरण हो गये हैं। गम्भीर मुद्रा, हृदय परिवर्तन कारिणी सुधोपम वाणी, इसके अतिरिक्त महापुरुषों के लिए महाराज श्री की यह प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व......"परम पूज्य गुरुदेव श्री राजस्थान धारणा भी है कि जो जितना महान होगा वह उतना ही केसरी पुष्कर मुनिजी महाराज के अद्भुत गरिमामय शान्त और गम्भीर भी होगा । उथला जल अधिक अस्थिर व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करने में यह शब्द-संयोजना होता है । देशकाल-वातावरण के अनुरूप जो व्यवहार नहीं कदाचित् अक्षम सिद्ध होती जा रही हैं, उस विराट व्यक्तित्व करता हो, वह तो मानव ही नहीं होता और जो इसके के विषय में श्रद्धालुजन प्रभावित और चमत्कृत होकर जिस अनुरूप अपना व्यवहार ढालने में सफल रहे वह साधारण प्रकार का अपना मानस बनाते हैं-उसकी सम्पूर्णतः अभि- मानव होता है। किन्तु जो अपने आदर्शों और सद्विचारों व्यक्ति कठिन है। उनका अनुभव 'गूंगे के गुड़' जैसा रह के अनुकूल देश-काल-वातावरण को ढालने में सफल रहे, जाता है और 'गिरा अनयन, नयन बिनु बानी' वाली वह महापुरुष होता है। महाराज श्री की इस धारणा की असमर्थता को स्वीकार कर मन विवश हो जाता है। यदि परीक्षा की जाय तो स्वयं महापुरुषता की गरिमा से निश्चित ही महाराज श्री असाधारण गरिमा युक्त व्यक्तित्व विभूषित असाधारण व्यक्तित्व सिद्ध होते हैं। आपश्री के स्वामी हैं । आपश्री के सशक्त तन में अतीव मृदुल मन दुष्कर्मियों के विनाश में महानता के लक्षणों का अनुभव का निवास है......"मन, जो करुणा, स्नेह, सहानुभूति, नहीं करते। महानता तो दुर्जनों को सज्जन बना देने में क्षमा, सेवा, सहायता और औदार्य का समन्वित रूप हैं। निहित हैं। महापुरुषों की यह विशेषता महाराज श्री के परम श्रद्धेय पुष्कर मुनिजी महाराज वस्तुतः जन-जन के व्यक्तित्व को अनूठी आभा प्रदान करती हैं कि आपश्री लिए पूज्य हैं, वंद्य हैं। श्रद्धेय तो वह होता है, जिसकी दुर्जनता के विरोधी हैं, दुर्जनों के नहीं। इस तथ्य के प्रतिश्रेष्ठता और महानता को जनमानस सानन्द स्वीकृति दे। पादन में उद्धरणों की खोज करना रंचमात्र भी अपेक्षित इस कसौटी पर आपश्री सर्वथा खरे उतरते हैं और इसका नहीं है । सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्वयं स्पष्ट तथ्य है आधार महाराज श्री का व्यापक जनहिताय कृतित्व हैं। और आपश्री द्वारा लाखों-करोड़ों को सन्मार्ग और आत्म
महापुरुष कौन.....? इस विषय में स्वयं महाराज कल्याण के पद पर गतिशील कर देने की जो महती भूमिका श्री के विचार उल्लेखनीय हैं-"अन्य में जैसा परिवर्तन पूरी की जाती रही है उसकी महत्ता सर्व स्वीकार्य है। अपेक्षित समझे, बैसा परिवर्तन जो पहले स्वयं में ले आए वस्तुतः गुरुदेव श्री की यही भूमिका स्वयं आपश्री की और इस परिवर्तित रूप में प्रभावित होकर अन्य जन स्वतः महानता की तीव्र उद्घोषणा कर रही है और इसी से ही सुधारने लगें-वह महापुरुष है । वह नहीं...."अपितु आपश्री वर्तमान शती में करोड़ों व्यक्तियों के लिए परम उसका स्वरूप ही सुधारक होता है । उसका कण्ठ मौन और श्रद्धेय बन गये हैं। साधुत्व की साकार प्रतिमा परम पूज्य आचरण ही मुखर होता है।" महाराज श्री ने चिन्तन की पुष्कर मुनिजी महाराज मुनि जीवन के आदर्श हो गये हैं। अतल गहराई से जिस तत्व-मणि की प्राप्ति की है, उस आपश्री सतत साधना और घोर तपश्चर्या द्वारा आत्ममौलिक तात्विक सिद्धान्त को आपश्री ने अपने आचरण में कल्याण के पथ पर तो उत्तरोत्तर अग्रसर होते ही जा रहे
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