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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
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बाहर नहीं जातवह प्रायः सा
शोभा बढ़ा
ठहरते न
यद्यपि उस चातुर्मास में दो-चार बार आना-जाना हुआ उनकी भी हैं। उन्होंने पूना चातुर्मास में अनेक जैन विद्वानों का अकाट्यतों से मैं प्रभावित हुआ। उनकी सहनशीलता गौरव कर जैन समाज को विद्वानों का आदर करना भी ने मुझे आकर्षित किया। उनके विद्वान् शिष्य देवेन्द्र मुनि सिखाया। अपने आपको बड़ा समझना या बड़ा होने से जी का आकर्षण तभी से था । लेकिन पूना चातुर्मास में दूसरों को बड़ा बनाना यह गुण श्री पुष्कर मुनिजी में है। श्री पुष्करमुनि जी का विशेष सम्पर्क हुआ और देखा कि स्थानकवासी समाज में जन-कल्याण के काम कम नहीं होते। उनमें ज्ञान-साधना के साथ-साथ आत्म-साधना की वृत्ति साहित्य प्रकाशन में हर साल लाखों का खर्च होता है, भी है। हमने देखा ठीक ध्यान का समय होते ही वे बढ़िया साहित्य भी निकलता है पर वह प्रायः साधु समुदाय व्याख्यान से चल देते हैं और जाकर एकान्त में ध्यान करने के उपासकों के बाहर नहीं जाता, सेठों की अलमारियों की लगते हैं। इस बात का मन पर परिणाम इसलिए हुआ शोभा बढ़ाता है। यही कारण है कि स्थानकवासी समाज कि वे श्रावक चरण स्पर्श कर सकें इसलिए ठहरते नहीं। के कार्य का योग्य मूल्यांकन नहीं हो पाता। साहित्य में गृहत्याग कर साधु बने अनेक सन्तों को इस मोह से पीड़ित व्यापकता और उसका व्यापक प्रचार का महत्व पुष्कर पाया। पैर पर मस्तक घिसने की व्यवस्थित पंक्ति बनाई मुनिजी और उनके शिष्यों ने कुछ समझा है और उस जाती है और उपासक पैर को छूकर अपने आपको धन्य दिशा में कुछ प्रयत्न भी उनकी ओर से हो रहा है । श्रावकों समझते हैं । अपने भाग्य का विधाता अपने आपको मानने से लाखों रुपये दान में लेकर छपा हुआ साहित्य गोदामों वाले जैन धर्म में व्यक्तिपूजा और चमत्कार पर श्रद्धा रखने में सड़ता है या चूहों का खाद्य बनता है। उन विद्वानों वालों पर दया आती है। कैसी विडंबना है यह ? बड़ों के तक भी नहीं पहुंचता जिनके पास पहुंचने पर उसका सद् प्रति आदर रख सद्गुणों की उपासना की जा सकती है उपयोग होने की संभावना रहती है। पर गुरु हमें कुछ दे देगा ऐसी कामनिक भक्ति का जैन- हमें पूना चातुर्मास में पुष्कर मुनिजी एवं देवेन्द्रमुनिजी शास्त्र में विधान न होते हुए भी हम ऐसे पुरुषार्थहीन बन के सम्पर्क से कुछ आशा बंधी कि स्थानकवासी समाज के गये हैं कि सन्त तथा महापुरुषों का उपदेश जीवन में न कार्यों से अन्य जैन सम्प्रदाय ही नहीं, पर अजैन विद्वान उतार कर केवल उनकी भक्ति से कल्याण होगा यह भी परिचित होगा । और कामों को व्यापक और अधिक मान्यता प्रचलित देखकर दुःख हुए बिना नहीं रहता। जिस उपयोगी बनाया जावेगा। परावलंबन को मिटाने के लिए ईश्वर की कामनिक भक्ति हम मुनिजी और उनके शिष्य परिवार की शुभ प्रवृका विरोध करने वाले जैन धर्म में बह प्रचलित हो यह त्तियों की सराहना करते हुए उनको श्रद्धांजली अर्पण कर सचमुच धर्म नहीं, धर्म की विडंबना है।
कामना करते हैं कि उन्हें दीर्घायु और स्वास्थ्य मिले, ताकि _पूना चातुर्मास में सम्पर्क बढ़ा । हमने देखा कि मुनिजी स्थानकवासी समाज ही नहीं पर पूरे जैन समाज की ऐसी हृदय को आकर्षित करने वाले उत्तम वक्ता ही नहीं है, पर सेवा करें जिससे राष्ट्र और मानव जाति की सेवा में जैन गुणों का आदर करने वाले लोक संग्रह करने वाले नेता समाज आगे बढ़ सके ।
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सांस्कृतिक एकता के सेतु-श्री पुष्करमुनि
0 श्री चन्दनमल 'चांद' [सम्पादक-जैन जगत] __ भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की एक सामा- भारतीय संस्कृति के इस विशाल सागर में भी गंगा, सिक संस्कृति है। विश्व की अनेक जातियाँ एवं धर्म इस यमुना एवं सरस्वती की तरह तीन धाराएँ स्पष्ट दीखती संस्कृति के सागर में घुल-मिलकर एकाकार हो गये हैं। हुई संगम बनी हुई हैं। ये तीन धाराएं हैं-वैदिक, जैन अनेक दर्शन, वाद एवं मतमंतारों के अतिरिक्त विश्व की एवं बौद्ध । जैन एवं बौद्ध धाराओं को श्रमणसंस्कृति के अनेक जातियाँ, अनेक भाषाएं, पहनावे और सभ्यताएँ एक प्रवाह में भी व्यक्त या उल्लिखित किया जा सकता भारत में पहुँची। भारतीय संस्कृति ने उदारता से उन है। सबको रचा-पचाकर आत्मसात कर लिया, फलतः आज राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी वैदिक भारत संस्कृति का एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें रंग-बिरंगे एवं श्रमण संस्कृति की दो धाराओं के बीच अनूठे सेतु हैं । फूलों की तरह अनेक पहनावे, भाषाएँ, धर्म आदि शोभित ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर वैदिक संस्कार प्राप्त किये हो रहे हैं।
किन्तु जैन धर्म एवं जैनदीक्षा स्वीकार कर साधना के
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