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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
सबका विस्तार अपने-अपने पूर्वभागों में भी है। सिद्धासन के अभ्यास द्वारा मूलाधार चक्र का भेदन होने लगता है। तत्पश्चात् क्रमशः शेष चक्रों का भी भेदन होता है । अभ्यास द्वारा मूलाधार चक्र में योगाग्नि प्रज्वलित होने से कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है।
विविध आसनों के नियमित अभ्यास द्वारा भी यही परिणाम आता है।
प्रत्येक आसन का सम्बन्ध किसी न किसी चक्र के साथ होता ही है। उदाहरणार्थ, जिनमें पाष्णि द्वारा गुदा का मध्यभाग पीड़ित किया जाता है ऐसे मूलबन्धासन, वीरासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, वृषासन, पार्वासनादि-आसनों का सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ होता है। जिनमें पाणियों द्वारा गुदा और उपस्थ का मध्यवर्ती भाग दबाया जाता है ऐसे
-सिद्धासन, सिंहासन, मुक्तासन, धीरासन, खंजनासन, कूर्मासन, गोमुखासनादि-आसनों का सम्बन्ध स्वाधिष्ठान चक्र के साथ होता है। जिनमें उदर को सिकोड़ा जाता है अथवा फुलाया जाता है ऐसे-पश्चिमोत्तानासन, भूनमनपद्मासन, पवनमुक्तासन, पृष्ठासन, उत्तानपादासन, कर्णपीड़नासन, सुप्तद्विपादशिरासन, हलासनादि-आसनों का सम्बन्ध मणिपूरचक्र के साथ होता है । जिनमें वक्ष को दबाया जाता है अथवा कुंभक करके उसको फुलाया जाता है ऐसे-सर्वांगासन, हलासन, कर्णपीडनासन, सुप्तद्विपादशिरासन, सुप्तएकपादशिरासनादि-आसनों का सम्बन्ध विशुद्ध चक्र के साथ होता है। जिनमें दृष्टि को अपने आप स्थिर किया जाता है ऐसे-मूलबन्धासन, वज्रासनादि आसनों का सम्बन्ध आज्ञाचक्र के साथ होता है।
२. योगोक्त दस मुद्राओं में से किसी एक मुद्रा का या इससे अधिक मुद्राओं का नियमित अभ्यास करने से भी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है।
मुलबन्धमुद्रा, उड्डीयानबन्धमुद्रा, शक्तिचालनमुद्रा, जालंधरबन्धमुद्रा, महावेधमुद्रा, महामुद्रा, महाबन्धमुद्रा, विपरीतकरणीमुद्रा, बज्रोलीमुद्रा और खेचरीमुद्रा-ये दस मुद्राएँ योग की अमर अनुभूतियाँ हैं । उच्च कक्षा के सबीज योगसाधक को योग की सम्यक् साधना द्वारा उन मुद्राओं का साक्षात्कार होता है । मुद्रा आसन का विकसित स्वरूप है। आसनों में इन्द्रियों की प्रधानता और प्राण की गौणता होती है। इससे विपरीत, मुद्राओं में इन्द्रियों की गौणता और प्राण की प्रधानता होती है। एक ही मुद्रा विविध आसनों में की जा सकती है, अतः सिद्ध होता है कि आसन गौण और प्राणप्रक्रिया प्रधान है, इतना ही नहीं, एक ही आसन में एक साथ एकाधिक मुद्राएँ भी की जा सकती हैं।
सामान्य मुद्राएं असंख्य हैं। इनमें उपयंक्त दस मुद्राएँ प्रधान हैं। इनका सम्बन्ध भी चक्रों के साथ जुड़ा हुआ है।
(१) महामुद्रा-भूमि पर बैठकर दक्षिणपाद को लम्बा करना तदनन्तर वामपाद को मोड़कर उसकी पाणि द्वारा सीवनी को दृढ़तापूर्वक दबाना । पश्चात् दोनों हाथों द्वारा पाद के पंजों को पकड़ना और नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा आभ्यन्तर कुंभक करना। अन्त में जालंधरबन्ध बाँधकर और शरीर को नीचे की ओर झुकाकर मस्तक को घुटने पर रखना, इसको 'महामुद्रा' कहते हैं। वामपाद के स्थान पर दक्षिणपाद का उपयोग करके उसका दूसरा प्रकार भी बनाना । इस मुद्रा का सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। जब यह सिद्ध हो जाती है तब इसका सम्बन्ध सहस्रार के साथ हो जाता है।
(२) मूलबन्धमुद्रा-भूमि पर बैठकर दक्षिणपाद की पाष्णि द्वारा सीवनी को दबाकर वामपाद की पाष्णि को लिंग के मूल पर स्थापित करना, तदनन्तर गुदा को संकोचकर तथा नाभि को मेरुदण्ड की ओर बलपूर्वक आकृष्ट करके अपानवायु को ऊपर चढ़ाना, इसको 'मूलबन्धमुद्रा' कहते हैं । इस मुद्रा का सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है।
(३) शक्तिचालनमुद्रा-शक्तिचालनमुद्रा समस्त मुद्राओं की जननी है और योग का परम रहस्य है, फलतः उसको गुप्त ही रखा जाता है। गुरु स्वयं उसकी शिक्षा केवल वैराग्यसम्पन्न श्रेष्ठ शिष्य को ही देता है, और किसी को नहीं। इसका सामान्य संकेत इस प्रकार है
सिद्धासन पर आरूढ़ होकर दक्षिण हाथ की मुट्ठी द्वारा नाभि के निम्न भाग में आयी हुई कुण्डलिनी को दबाना । पश्चात् प्राण द्वारा अपान को क्रमश: मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार इत्यादि ऊर्ध्व चक्रों में चढ़ाना। यहाँ यह स्मरणीय है कि जब तक अपान निर्बल नहीं हो पाता तब तक प्राण उसको ऊपर के चक्रों में नहीं ले जा सकता, अतः प्राण-अपान का संघर्ष काफी समय तक चलता है। अन्त में जब प्राण प्रबल बनता है तब पराजित अपान ऊपर के चक्रों में चढ़ने लगता है।
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