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कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण
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सत्त्वगुण समृद्ध होने से उसके अन्तःकरण में ज्ञान के निर्झर झरने लगते हैं। अन्त में वह शक्ति ऊर्ध्वगामिनी बनकर सहस्रार में पहुँच जाती है और योगी संसार-बन्धन से विमुक्त हो जाता है। अधःशक्ति में अधःशक्तिपात और ऊर्ध्वगामिनी शक्ति में ऊर्वशक्तिपात होता है।
६. कुण्डलिनी की जागरणविधि भारत में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति के सामान्य साधन तो सहस्रों वर्ष से लोकसमाज में प्रचलित हैं। उनमें से किसी एक साधन का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करने से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। यह भारतीय धर्मों की अद्वितीय विशिष्टता है।
भोगेच्छुक संसारी की सकाम-साधना का मार्ग भिन्न है और योगेच्छुक संन्यासी की निष्काम-साधना का मार्ग भिन्न है। सकाम साधक में सिद्धियों की कामना होती है, अतः उसके अन्तःकरण में विक्षेप का कारण सुरक्षित रहने से चित्तवृत्तियों का सम्पूर्ण निरोध नहीं हो पाता और निष्काम साधक में केवल शरणागति अथवा मोक्ष की भावना होती है, अतः उसके अन्तःकरण में विक्षेप का कारण न रहने से चित्तवृत्तियों का सम्पूर्ण निरोध हो सकता है।
सकाम साधना में संसारी साधक को यथाशक्ति संयम-ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है और निष्काम साधना में संन्यासी साधक को ऊर्ध्वरेता बनने के लिए आत्मसमर्पण करना पड़ता है अर्थात् आत्मा से विषय-विकारों को पूर्ण रूप से निकालना पड़ता है ।
इन ज्ञान, कर्म एवं भक्ति के प्रचलित साधनों की दूसरी विशेषता यह है कि उनके अनुष्ठान द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत तो हो ही जाती है किन्तु उसका वेग सह्य होता है, फलतः जैसा अनुष्ठित साधन, जैसा अधिकारी और जैसी परिस्थिति वैसा प्रयत्न करने में सुविधा होती है।
मोक्षप्राप्ति की इच्छा न हो और पात्रता भी न हो तथापि शक्तिपात की दीक्षा लेकर जो साधक भौतिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधना करता है वह बहुत बड़े भ्रम में पड़ा हुआ है। उसको यह ज्ञात नहीं है कि शक्तिपात की दीक्षा संन्यस्त दीक्षा ही है, मोक्षयात्रा है। इसमें तो संप्राप्त सिद्धियों को भी श्रीहरि अथवा श्री गुरुचरणों में समर्पित करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, वह इन सिद्धियों को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं करता। सकाम साधना के अनुष्ठान से साधक को आरम्भ में भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इससे उसके अन्तःकरण में श्रद्धा-भक्ति का अभ्युदय होता है और धर्मभावना सुस्थिर होती है, परिणामतः उसको सकाम कर्मों की तुच्छता और निष्काम कर्मों की महत्ता अवगत होती है। निष्काम मार्ग के साधक को आरम्भ और मध्य में आध्यात्मिक सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं, इससे वह वैराग्यसम्पन्न होता जाता है और उसको धीरे-धीरे विश्व की विस्मृति होती जाती है।
ज्ञानमार्गी संन्यासी साधक अरण्य में रहकर शास्त्राध्ययन और निरन्तर शास्त्रचिन्तन करता रहता है । इतना ही नहीं, ज्ञानप्राप्ति के लिए विवेक, वैराग्य, षटसंपत्ति और ममक्षता के प्रति भी निरन्तर अभिमुख रहता है जिससे उसका उत्तरपथ निर्विघ्न होता जाता है और अन्त में वह उसका अधिकारी बन जाता है।
ज्ञानमार्गी संसारी साधक भी नगर में रहकर यथासम्भव शास्त्राध्ययन एवं यथासम्भव शास्त्रचिन्तन करता रहता है। इतना ही नहीं, ज्ञानप्राप्ति के लिए यथासम्भव विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुता के प्रति अभिमुख रहने का आयास भी करता रहता है, जिससे वह संन्यास अथवा प्रव्रज्या का अधिकारी बन जाता है।।
- योगमार्गी संन्यासी साधक तपोवन में रहकर योगोपासना, शास्त्राध्ययन, शास्त्रचिन्तन और यम-नियम का परिपालन करता रहता है । फलतः उसके अन्तःकरण में ज्ञान-वैराग्य की वृद्धि होती है और उसको आध्यात्मिक सिद्धियों की संप्राप्ति भी होती है । इस प्रकार वह अपने उत्तरपथ को प्रशस्त बनाता रहता है ।
ज्ञान, भक्ति अथवा कर्मयोग हो अथवा उनके अन्तर्गत आने वाला कोई भी योग हो, उसकी सिद्धि के लिए साधक को कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करनी ही पड़ती है। योगमार्गी एवं भक्तिमार्गी साधक निम्नोक्त साधनों के अनुष्ठान द्वारा कुण्डलिनी को जगा सकते हैं।
१. केवल सिद्धासन का नियमित अभ्यास करने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है ।
योगी लोग शरीरस्थ चक्रों को शक्तिकेन्द्र या नाड़ी केन्द्र कहते हैं। उनमें प्रधान सात चक्र-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार और गौण दो चक्र-सोमचक्र तथा मनश्चक्र—अथवा इनसे भी अधिक गौण चक्र-व्योम चक्र, ललनाचक्रादि-मानते हैं। यद्यपि उनके स्थान शरीर के पृष्ठवंश में हैं तथापि उन
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