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जप-साधना और मनोविज्ञान
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स्थूल रूप से दीखने वाली क्रिया जिसमें एक ही शब्द, अक्षर, या मन्त्र का पुनरुच्चार किया जाता है, जप कहलाता है। साधारणतया जब एक ही शब्द अथवा भावना का सतत और नियन्त्रित रूप में उपयोग किया जायेगा तो उसका स्वयं के शरीर में एक प्रकार का प्रवाहात्मक संचरण आरम्भ होगा। मनोविश्लेषण प्रणाली में जब रोगी की उसके रोग के विषय में शान्त स्वरूप में अधिक से अधिक विचार केन्द्रित करने को प्रेरित किया जाता है और एक ही भावना या कल्पना या विचार के सम्बन्ध में चिन्तन करने को कहा जाता है तो कुछ अर्थों में वहाँ जप की प्रक्रिया को ही अप्रत्यक्ष रूप से उपयोग में लाया जाता है। जप प्रक्रिया में साधक मन्त्र द्वारा सतत पुनरुच्चार करने के कारण मन्त्र की भावना के साथ एकात्मरूप होने का प्रयत्न करता है और एक ऐसी अवस्था लाने का प्रयत्न करता है जिसमें मन्त्र के सम्बन्ध में सभी भावनाएँ साकाररूप में उसके सामने खड़ी हो जाती हैं। साक्षीभाव का भी यह एक स्वरूप है । कतिपय उपनिषदों में प्राणायाममय जप अथवा ध्यानमय जप का उल्लेख है। आधुनिक युग में कुछ लोगों ने लिखकर जप करने के प्रयोग भी किये हैं जिसे लेखनात्मक जप के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हेतु इतना ही है कि एक ही विचार के साथ अधिकाधिक रूप में सम्पर्क जागरूक अवस्था में बना रहे । माला फेरने का हेतु और जोर-जोर से बोलने का हेतु भी यही है कि एक ही विचार का यथासम्भव, यथाशक्ति प्रवाह बना रहे । इस प्रवाह में इच्छाशक्ति और भावना का बड़ा महत्त्व है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि जप द्वारा अभिप्रेत प्रवाहित अवस्था में सातत्य रखा जा सकता है और मन्त्र उसके लिए एक उपयुक्त साधन है । उसी प्रकार जप के सम्बन्ध में अपनी भावना और विचार स्पष्ट होना बहुत आवश्यक है।
एक महत्त्वपूर्ण बात है जो जप के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण की अपेक्षा करती है वह है साधना-पद्धति में माला, जप, मन्त्र आदि का महत्त्व । ये सभी साधन के स्वरूप में स्वीकार किये गये हैं। साधन अनेक प्रकार के हो सकते हैं, अतः साधनों के सम्बन्ध में विवाद व्यर्थ है। आवश्यकता और सामर्थ्य के अनुसार लाभ लेने की वृत्ति साधक पर निर्भर करेगी। आधुनिक युग में कुछ लोगों ने जो आलोचना की है उस ओर संकेत करने से पहले हम कबीर के प्रसिद्ध वचन की ओर ध्यान देंगे।
'माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका छांडि दे, मन का मनका फेर ॥ एक बात तो स्पष्ट है कि प्राचीन युग से आज तक इस क्रिया का विरोध नहीं किया गया है वरन् क्रिया के विकृत रूप का विरोध ही किया गया है । इसलिए जैसा कि हमने ऊपर संकेत दिया है, मन्त्र, माला, आसन, स्थान आदि का महत्त्व जप की दृष्टि से गौण है । महत्त्वपूर्ण बात जप की भावना है और भावना को सदा सामने रखने के लिए जप एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है । साधक अपने लक्ष्य की ओर जागरूक अवस्था में जप द्वारा ही आगे बढ़ सकता है। उसका स्वरूप देश, काल, धर्म, अवस्था और आवश्यकतानुसार स्वीकार किया जा सकता है।
मनोविज्ञान की प्रयोगशालाओं में जप और ध्यान का शरीर और बुद्धि पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है, इस सम्बन्ध में कुछ प्रयोग हो रहे हैं। उसी प्रकार जप का श्वास-प्रश्वास, रक्त-प्रवाह और पाचन-क्रिया पर प्रभाव भी अभ्यास के विषय हैं। जप में शरीर जिस शिथिल अवस्था को प्राप्त होता है उस अवस्था को संवेगात्मक रोगों से बचने के लिए प्रस्थापित करना बहुत आवश्यक है। आज के प्रतियोगिता और तनावपूर्ण वातावरण में जप सम्बन्धी प्रायोगिक खोज की नितान्त आवश्यकता है। यद्यपि इस निबन्ध का विषय रोग-निवारण नहीं है, तथापि उसका वर्णन किये बिना भी इस चर्चा को नहीं छोड़ा जा सकता। अतएव प्राचीन आचार्यों की जप सम्बन्धी धारणाओं को आधुनिक विज्ञान और प्रयोग की भाषा में स्वीकार करने में सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई कठिनाई नहीं है। धर्म की इस विधा का जन-जन के लिए उपयोग हो सकता है।
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