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१६६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
की मालाओं का भी अपनी आवश्यकतानुसार साधक उपयोग करते हैं । आजकल काँच और प्लास्टिक की मणियों का भी उपयोग होने लगा है । कुछ लोगों ने अँगुली के पर्वो से जप करने की पद्धति भी प्रस्थापित की है । अँगुली के पर्वों से जप करना आवर्त जप कहलाता है । उसमें पाँच प्रकार के आवर्तो का उल्लेख है :
(१) आवर्त (२) शंखावर्त (२) नन्दाव
(४) ओं आवर्त (५) ह्रीं आवर्त
जयपद्धति में आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से तीन महत्वपूर्ण अंग दृष्टिगोचर होते हैं। पहली महत्त्वपूर्ण बात, जप करने वाले की भावना, दूसरी उसका हेतु और तीसरी महत्त्वपूर्ण बात, अपने हेतु के साध्य करने के लिए प्रयत्न करने की शारीरिक व मानसिक अवस्थाओं का नियन्त्रण । मनोविज्ञान के प्रस्थापित नियमों के अनुसार संवेग की स्थिति में मनुष्य अपने शरीर पर वांछित नियन्त्रण नहीं रख सकता । शैक्षणिक प्रक्रिया में शरीर का शान्त और शुद्ध होना आवश्यक माना गया है। विद्या अध्ययन करने वाला विद्यार्थी शान्त और स्वच्छ जगह की खोज करेगा । भोजन करते समय हम हाथ आदि धोकर स्वच्छ पात्रों में प्रसन्नमन से भोजन करने का प्रयत्न करते हैं। आधुनिक युग में बड़े-बड़े होटलों में भोजन के समय शान्त और मधुर संगीत, बहुत ही धीमा प्रकाश और ऋतु अनुकूल वातावरण के अनुसार तापमान पर नियन्त्रण कर लोग डेढ़-दो घण्टे तक धीरे-धीरे भोजन का आस्वादन करते हैं। यदि हम अध्ययन, भोजन आदि के लिए शान्त और निर्मल वातावरण की अपेक्षा करते हैं तो जप, ध्यान आदि के लिए भी इसी प्रकार के वातावरण की अपेक्षा करना अवांछित न होगा ।
जप में दूसरी एक महत्त्वपूर्ण अवस्था शरीर की है । प्रायः सभी शास्त्रकारों ने 'आसन' शब्द का उपयोग किया है । लौकिक भाषा में लोगों ने बैठने की अवस्था के साथ-साथ जिस दरी या कम्बल के टुकड़े पर हम बैठते हैं उसे भी आसन के नाम से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया है। इसमें सन्देह नहीं कि बैठने के लिए उपयोग में आने वाला कम्बल, चादर या वस्त्र स्वच्छ होना चाहिये, परन्तु महत्त्वपूर्ण बात शरीर की अवस्था है । साधारणतया साधना की प्रारम्भिक अवस्था में बैठकर ही जप करना मनोविज्ञान के नियम के अनुसार उचित माना जायेगा । सम्भवतः स्थूल जप का अर्थ भी यही है और स्थूल जप करते समय यदि साधक का ध्यान अपने शरीर के आसन की ओर गया (जंघों का शून्य होना, कमर पर तनाव पड़ना, ग्रीवा भाग में खिंचाव होना, पेट में विकार होने के कारण वायु 'को और डकारें वगैरह आना) तो इच्छा न रहते हुए भी मन्त्र की ओर से ध्यान अवश्य हटेगा। अतएव मन्त्रजाप के संकल्प के समय शरीर की बाह्य और आन्तरिक दोनों अवस्थाओं पर नियन्त्रण अभिप्रेत है और शरीर पर नियन्त्रण थोड़े से अभ्यास के साथ स्वाभाविक रूप से आना चाहिए। एक बार जाप आरम्भ हुआ कि शरीर की ओर से, वातावरण की ओर से ध्यान हटना बहुत जरूरी है सम्भवतः इसीलिए सभी परम्पराओं में किसी न किसी रूप में आसनों को स्वीकार किया है, परन्तु किसी एक विशेष आसन का उल्लेख आवश्यक नहीं समझा गया है। आहार-शुद्धि इत्यादि का भी अप्रत्यक्ष स्वरूप से उल्लेख अभिप्रेत है ।
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शान्त बैठने के अभ्यास के साथ-साथ स्वाभाविक रूप में मन्त्र की ओर ध्यान जाना आवश्यक है। भारत जैसे विचित्र देश में इस परम्परा में विविध प्रकार के मन्त्रों का संकलन उपलब्ध है (बीज अक्षरों से लेकर स्तोत्रों तक ) । साथ ही इन मन्त्रों के जाप से होने वाले शुभ-अशुभ परिणामों का भी स्पष्ट विवरण उपलब्ध है । तर्क की दृष्टि से कुछ बातें समझ पाना बड़ा कठिन है । सम्भवतः मनुष्य की किसी असहाय अवस्था में कुछ धर्म गुरुओं में इच्छा पूर्ति मन्त्र तैयार कर दिये होंगे । परन्तु धर्म के सही स्वरूप को देखते हुए हमें ऐसा आभास होता है कि यदि सूक्ष्मतम अवस्था जप की श्रेष्ठ अवस्था है तो सभी जप अपने मन की शान्ति के लिए ही स्वीकृत होंगे । सहज, उपांशु, स्वाभाविक और साक्षीभाव प्रायः पर्यायवाची अवस्थाओं के नाम हैं जो साधक की प्रगति की ओर इंगित करते हैं। और यह प्रगति मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिसके अनुसार मूलतः मानव आत्म-केन्द्रित होता है । जप इसी भावना को विकसित करने में सहायता करता है । अतः शास्त्रीय आधार को ध्यान में रखकर हम यह कह सकते हैं कि जप मनुष्य की एक ऐसी अवस्था लाने में सहायक हो सकता है जो उसके लिए और उसके सामाजिक जीवन के लिए बहुत ही उपयुक्त सिद्ध हो सकती है । जप के द्वारा किस प्रकार मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए और समाज के लिए उपयोगी है। इसका हम संक्षिप्त में विश्लेषण करने का प्रयत्न करेंगे।
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