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देखना, मात्र देखना ही हो
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'मैं हूँ' ऐसी अनुभूतियाँ भविष्य में करेगा। 'मैं हूँ' का यह भ्रम इस अस्तित्वहीन 'मैं' के प्रति आसक्तियाँ पैदा करता है जो राग-द्वेष की अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करता है। यह 'मैं हूँ' ही अविद्या है। रागद्वेष और रागद्वेष को मोहमूढ़ता ही 'मैं हूँ' को बलवान बनाती है।
साधक अपने सतत अभ्यास द्वारा फिल्म की रील के टुकड़े-टुकड़े कर लेता है तो 'मैं हूँ' का भ्रम टूटता है। 'मैं हूँ' फिर 'मैं है' में परिवर्तित होता है और 'मैं है' भी केवल लोक व्यवहार के लिए रह जाता है। इसमें 'मैं' के अलग-थलग व्यक्तित्व की भ्रान्ति दूर होती है। एक-एक क्षण का अपने आप में अलग-अलग साक्षात्कार होने लगता है। भ्रम टूटकर वस्तुस्थिति स्पष्ट होती है। प्रज्ञा जागती है। अविद्या का सारा क्लेश दूर होता है । राग-द्वेष की नयी गाँठे बँधनी बन्द होती हैं और पुरानी खुलने लगती हैं।
तब देखने में 'मैं देखता हूँ' का भ्रम दूर होता है । देखने में मात्र देखना ही रह जाता है। जैसे देखने में मात्र देखना, वैसे ही सुनने में मात्र सुनना, सूंघने में मात्र सूंघना, चखने में मात्र चखना, छूने में मात्र छूना रह जाता है और जानने में मात्र जानना रह जाता है। 'कर रहा हूँ' या 'भोग रहा हूँ' की जगह 'हो रहा' की सच्चाई प्रकट होती है । अहंभाव अहंकारविहीनता में प्रतिष्ठित होता है । आत्मभाव अनात्मभाव में बदलता है।
अब तक केवल सैद्धान्तिक स्तर पर साधक यह मानकर चलता था कि यह काया और आत्मा मेरी नहीं है किन्तु यह महज मानने की बात न रहकर स्वानुभूतियों के बल पर इस सच्चाई को स्वयं जान लेता है और उसे स्पष्ट हो जाता है कि इन इन्द्रियों की अनुभूतियों में भी किसी 'मैं' का अस्तित्व नहीं है। न यह ऐन्द्रिय अनुभूतियाँ किसी 'मैं' को धारण किये हुए हैं और न कोई 'मैं' इन इन्द्रियों को धारण किये हुए है।
तथागत ने यही बात संन्यासी को समझाते हुए कहा था 'जब तुम्हें दिढे विट्ठमत्तं भविस्सति, देखने मात्र देखना मात्र होने लगे 'तं तो त्वं न तेन' यानी इस देखने-सुनने आदि के कारण तुम हो यह भ्रान्ति दूर होगी और तभी 'ततो त्वं न तत्य' यानी इस देखने, सुनने में तुम हो यह भ्रम मिटेगा। ऐसी अहंशून्य स्थिति के प्राप्त होते ही लोकोत्तर निर्वाण का साक्षात्कार होगा । 'एसवन्तो दुक्खसा' यही दुःखों का अन्त है।
इस उपदेश को संन्यासी केवल समझकर ही नहीं रह गया, बल्कि उसे जीवन में अपनाने लगा। जिसे अपनी मृत्यु समीप दिखायी दे, वह प्रमाद कैसे कर सकता है। वह एकान्त में बैठकर अन्तर्मुख हुआ और अविरल चित्त की धारा के टुकड़े-टुकड़े कर प्रत्येक क्षण को जैसा है वैसा देखने लगा। देखते-देखते ही अस्मिता दूर हुई, पूर्वसंस्कारों से छुटकारा मिला, चित्त अनासक्त बना, आस्रवों से मुक्त हो गया, परम निर्वाण पद का साक्षात्कार हो गया। संन्यासी कृतकृत्य हो गया। अल्प बचा जीवन सफल हो गया।
- तथागत बुद्ध भिक्षा लेकर लौटे तो उसकी जीवन-लीला पूरी हो चुकी थी। भिक्षुओं ने उसकी गति के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा-वह सब गतियों से परे गतिमुक्त हो गया। परिनिर्वाण को प्राप्त हो गया है। उस समय उनके मुख से यह बोल निकल पड़े
यत्थ आपो च पठवो, तेजो वायो न गाधति । न तत्थ सुक्का जोतन्ति आदिच्यो न प्पकासती॥ . त तत्थ चंदिमा भाति तमो तत्थ न निजति । यदा च अत्तनावे दि मुनि मोने न ब्राह्मणो ।
अथ रूपा च सुख-दुक्खा ययुच्यति ॥ जहाँ न पृथ्वी, न जल, न अग्नि और न वायु का ही प्रवेश है। जहाँ न शुक्र की ज्योति है, न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रमा का उजाला है और जहाँ आलोक का अभाव भी नहीं है। कोई ब्राह्मण मुनि मौन-पथ पर चलकर इसे स्वयं जान लेता है तो सारे रूप और लोकों से पार चला जाता है । सुख-दुःखों के द्वन्दों से मुक्ति पा लेता है।
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