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देखना, मात्र देखना ही हो
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देखना, मात्र देखना ही हो
. सत्यनारायण गोयनका
बम्बई से लगभग ५० मील दूर, पश्चिम रेलवे पर एक छोटा-सा स्टेशन है-नल्ला । पास में समुद्र के किनारे एक छोटा-सा ग्राम है-सुप्पारा। २५०० वर्ष पहले यह सुप्पारकपत्तन नामक भारत का अत्यन्त प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। उन दिनों पत्तन बन्दरगाह को कहते थे।
__उन दिनों सुप्पारकपत्तन में एक अत्यन्त वृद्ध संन्यासी रहता था। सिर पर सफेद बालों की जटा, चेहरे पर श्वेत लम्बी दाढ़ी और मूछे, वल्कल धारी कृश शरीर-संन्यासी का बड़ा ही भव्य व्यक्तित्व था । उस नगरी के अनेक धनी-मानी लोग उसके भक्त थे। सैकड़ों नित्य दर्शन करने आते, चरण-रज सिर पर चढ़ाते, खूब दान-दक्षिणा, विपुल खाद्य सामग्री और औषधि अर्पित कर अपने आपको धन्य समझते । भक्तों द्वारा प्रकट की गयी भक्ति और महिमा ने संन्यासी के मन में यह विश्वास पैदा कर दिया कि वह अर्हत् अवस्था को प्राप्त हो गया है। जीवन्मुक्त हो, भवबन्धनों से छूट गया है।
एक दिन किसी हितैषी ने बड़े प्रेम से समझाया 'वह अभी अर्हत् नहीं हुआ और न ही अर्हत् होने के मार्ग पर ही है।' यह सुन उसे सदमा पहुँचा, पर विवेकशील होने से चिन्तन करने पर उसे प्रतीत हुआ कि उस पर अब तक विकारों का प्रभाव है, तो वह अर्हत् या जीवन्मुक्त कैसे हो सकता है । एकाग्रता के अभ्यास के बावजूद उसकी विचारधारा सर्वथा विकाररहित नहीं हो पायी।
उसने प्रश्न किया-क्या इस संसार में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसका चित्त विकारों से पूर्णतया मुक्त हो गया है ? जो अर्हत् हो गया है ?' ।
उत्तर मिला-'हाँ, अवश्य है। उत्तर भारत के कपिलवस्तु का राजकुमार सिद्धार्थ गौतम जो सत्य की खोज में घर से निकल पड़ा और वर्षों की खोज के बाद चित्त के समस्त विकारों से मुक्त होने की विधि उसने खोज निकाली और स्वयं अभ्यास से अर्हत् अवस्था प्राप्त कर ली है। वह स्वयं बुद्ध है। वे इस समय जेतवन में हैं। उन्होंने जिस विधि से दुःखों से मुक्ति पायी उसको करुणचित्त से, बिना भेदभाव के सबको सिखाते हैं।'
___संन्यासी ने सुना तो उसके मन में विचारों का आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। मुझे घर छोड़ मुक्त होने के लिए संन्यासी हुए कई वर्ष बीत गये । परन्तु अब तक ऐसा तो नहीं हुआ। बाहरी वेश-भूषा, कर्मकाण्ड और त्याग-तपस्या से मान-सम्मान, गौरव-गरिमा, पूजा-प्रतिष्ठा तो प्राप्त हो रही है, पर उन बेचारों को मेरी मन की स्थिति का क्या पता। वे तो मेरे बाह्य रूप को ही देख रहे हैं। पर मुझे इस झूठे मान-सम्मान से क्या लाभ ? जिस लक्ष्य के लिए घर छोड़ा था वह तो प्राप्त हुआ ही नहीं। चित्त विशुद्ध और विमुक्त नहीं हुआ। यह तो मानव-जीवन में ही सम्भव है और मेरी अवस्था भी वृद्ध है, शेष जीवन अल्प रहा है।
उसके मन में संकल्प जगा–'जिस विधि से तथागत ने मुक्ति पायी उसे प्राप्त करूं।' उसके मन में नवजीवन का संचार हुआ। जीर्ण शरीर में युवकों-सी स्फति जगी और तत्काल श्रावस्ती की ओर चल पड़ा। तथागत के दर्शन और चित्त-विशुद्धि की विद्या सीखने की अभिलाषा ने संन्यासी के मन में अदम्य उत्साह भर दिया। श्रावस्ती की लम्बी यात्रा से उसे थकान महसूस नहीं हुई।
श्रावस्ती के जेतवन विहार में पहुंचा तो मालूम हुआ कि बुद्ध तो भिक्षा के लिए शहर में गये हैं । विहारवासियों ने कहा कि कुछ देर विश्राम कर लो, तब तक तथागत लौट आयेंगे।
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