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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व । [८७३ द्रव्यानुयोग द्रव्य (सामान्य) 'तत्त्वार्थसूत्र' में द्रव्यलक्षण विषयक दो सूत्र क्यों ? शंका-'सतव्य लक्षणम्' और 'गुणपर्ययवद् अध्यम्' इस प्रकार दोनों का एक अर्थ होते हुए भी 'तत्त्वार्थसूत्र' में ये दो सूत्र क्यों कहे ? समाधान-अन्य मतों में द्रव्य के विषय में भिन्न मान्यता है अतः उनमें कोई द्रव्य को सर्वथा क्षणिक मानते हैं और कोई द्रव्य को सर्वथा नित्य-कूटस्थ मानते हैं, इन दोनों के निराकरणार्थ 'सद्रव्यलक्षणम् ।' 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत' ऐसा कहा है। तथा कोई द्रव्य से गुण और पर्यायों को सर्वथा भिन्न मानते हैं कोई सर्वथा अभिन्न मानते हैं उनके निराकरण के लिये 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' सूत्र कहा है । कहा भी है "मतान्तरे हि द्रव्यावन्ये गुणाः परिकल्पिताः। न चैवं तेषां सिद्धिः। सर्वथा भेदेनानुपपत्तः । अतः द्रव्यस्य परिणमनं परिवर्तनं पर्यायस्तभेवा एव गुणा नात्यन्तं भिन्नजातीया इति मतान्तरनिवृत्यर्थ विशेषणं क्रियमाणं सार्थकमिति ।" [ सुखबोध तत्त्वार्थवृत्ति पृ० १३२ ] इसका अभिप्राय यह है कि मतान्तर में द्रव्य से अन्य गुण कल्पित किये गये हैं, किन्तु उनकी कल्पना सिद्ध नहीं होती, क्योंकि गुणगुणी के अर्थात् द्रव्य-गुण के सर्वथा भेद की उत्पत्ति नहीं है । इसलिये द्रव्य का जो परिणमन अथवा परिवर्तन है वह पर्याय है । उसका भेद ही गुण है, क्योंकि गुण की भिन्न जाति नहीं है। इसप्रकार मतान्तर के निराकरण करने के लिये विशेष कथन सार्थक है। -जं. ग. 7-10-65/IX/प्रेमचन्द द्रव्यगतस्वभाव को अन्यथा करने में केवली भी समर्थ नहीं शंका-श्री अरहंत भगवान में क्या यह शक्ति है कि अजीव को जीव बना देखें और जीव को अजीव बना देवें? समाधान-अरहंत भगवान में यह शक्ति नहीं है कि जीव को अजीव बना देखें और अजीव को जीव बना देवें, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य नित्य और अवस्थित है। "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" मोक्षशास्त्र ५/४ अर्थात्-द्रव्य नित्य और अवस्थित है। "येन भावेन उपलक्षितं द्रव्यं तस्य भावस्याव्ययो नित्यत्वमुच्यते ।" रा. वा. ५॥४२ अर्थात्-जो द्रव्य जिस लक्षण से युक्त है उस द्रव्य के उस लक्षण का कभी विनाश नहीं होता। इसको नित्य कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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