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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"नन स्वसंवेदन-भेदमन्यदपि प्रत्यक्षमस्ति, तरकथं नोक्तमिति न वाच्यम, तस्य सुखाविज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य मानसप्रत्यक्षत्वात, इन्द्रियज्ञानस्वरूपसंवेदनस्य चेन्द्रियसमक्षत्वात् । अन्यथा तस्य स्वव्यवसायायोगात् । स्मृत्यादिस्वरूप संवेवनं मानसमेवेति नापरं स्वसंवेदनं नामाध्यक्षमस्ति ।" [ प्रमेयरत्नमाला २२५]
अर्थ-जो स्वसंवेदन नाम प्रत्यक्ष अन्य है सो क्यों न कहा? ऐसे न कहना, जातै सो संवेदन सुख प्रादि का ज्ञान स्वरूप अनुभवन है सो मानस प्रत्यक्ष में आ गया और इन्द्रियज्ञानस्वरूप संवेदन है सो इन्द्रिय प्रत्यक्ष में आ गया जो ऐसे न मानिये तो तिस ज्ञानके अपने स्वरूप का निश्चय करने का अयोग आवे है। बहरि स्मरण आदि का स्वरूप का संवेदन है सो मानसप्रत्यक्ष ही है अन्य नांही है सो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहिये है, परन्तु जुदा भेद नांहीं ।
-जे.ग. 20-3-67/VII/ रतनलाल
जीव के सूक्ष्म परिणामों को मतिश्रुतज्ञानी नहीं जान पाते शंका-जीव के परिणामों को अनन्त कोटियाँ हैं, किन्तु वे परिणाम हमारी जानकारी में कैसे आ ? अपने परिणामों का सूक्ष्मज्ञान कैसे हो सकता है ?
समाधान-मतिश्रुत ये दोनों परोक्षज्ञान इन्द्रिय तथा मनकी सहायता से उत्पन्न होते हैं अतः इन दोनों ज्ञानों के द्वारा सूक्ष्म परिणामों का या परिणामों में सूक्ष्म परिवर्तन का ज्ञान नहीं हो सकता है। ये दोनों ज्ञान अपने या पर के स्थूल परिणामों को जान सकते हैं तथा प्रागम के आधार से परमाणु आदि सूक्ष्म का भी ज्ञान हो जाता है।
-जं. ग. 28-1-71/VII/ रो. ला. गैन प्रात्मा अलिंगग्रहण, अर्थात् इन्द्रियों से अज्ञेय है शंका-'अलिंगग्रहण' से क्या प्रयोजन है ? आत्मा का लक्षण उपयोग और उपयोग लक्षण के द्वारा मात्मा प्राह्य है ।
समाधान-अलिंगग्रहण से प्रयोजन यह है कि आत्मा इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है। पंचास्तिकाय गाथा १२७ की टीका में कहा है
"नेन्द्रियग्रहणयोग्य" ___उपयोग आदि लक्षणों से अनुमान के द्वारा आत्मा परोक्षरूप से ग्राह्य भी है तथा केवलज्ञानी प्रत्यक्ष जानते हैं।
-जं. ग. 14-1-71/VII/ रो. ला. मित्तल १. प्रात्मा और पदार्थों में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है
२. दर्शन ( दर्शनोपयोग ) का कार्य प्रात्म-ज्ञान शंका-आत्मा के स्वपर द्रव्यों का ज्ञानपना और द्रव्यों का तथा आत्मा का ज्ञेयरूपपना किस प्रकार है?
समाधान-प्रास्मा का लक्षण उपयोग है और वह उपयोग दो प्रकार का है-१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग । ( तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ८ व ९)। आत्मा ज्ञानोपयोग के कारण परद्रव्यों को जानता है और दर्शनोपयोग के कारण आत्मा (स्व) को देखता (जानता) है । श्री वीरसेन आचार्य ने कहा भी है
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