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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
व्याख्यान से परोक्षरूप मतिज्ञान को भी सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहा है वैसे ही आत्मा के सम्मुख जो भाव तज्ञान है वह परोक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष कहा गया है ।
यदि मतिज्ञान व श्रुतज्ञान एकान्त से परोक्ष होते तो सुख-दुःख प्रादि का संवेदन भी परोक्ष ही होता, किन्तु वह संवेदन परोक्षज्ञान नहीं है ।
- जै. ग. 10-10-68 / VII / रो. ला. मित्तल
स्वानुभव का लक्षण एवं स्वामी
शंका-स्वानुभव का लक्षण क्या है ? यह कौनसे गुणस्थान से प्रारम्भ होता है ?
समाधान - वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्थ स्वेन योगिनः । तत्स्व-संवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम् ॥ १६१ ॥ तत्त्वानुशासन
अर्थ - योगी को अपने ही द्वारा अपने को ज्ञ ेयपना और ज्ञानपना है उसका नाम स्वसंवेदन है और उसी को अनुभव प्रत्यक्ष कहते हैं ।
" यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्षज्ञानेन व्यवहारनयेन घुमादग्निववशुद्धात्मा ज्ञायते तथापि रागादिविकल्परहित स्वसंवेदनज्ञानसमुत्पन्नपरमानंदरूपानाकुलत्वसु स्थित वास्तव सुखामृतजलेन पूर्णकलशवत्सर्व प्रदेशेषु भरितवस्थानां परमयोगिनां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणां न भवतीत्यलगग्रहणः ।" पंचास्तिकाय गाथा १२७ ॥
अर्थात् — अशुद्धात्मा अनुमानस्वरूप परोक्षज्ञान के द्वारा व्यवहारनय से उसी तरह पहचान लिया जाता है जिस तरह घूमसे अग्नि का अनुमान करते हैं । यह शुद्धात्मा रागादि विकल्पों से रहित स्वसंवेदनज्ञान से उत्पन्न परमानंदमई अनाकुलता में भले प्रकार स्थित सच्चे सुखामृतजल से पूर्णकलश की तरह भरे हुए परमयोगियों को प्रत्यक्ष है, किन्तु जो ऐसे योगी नहीं हैं उनको अनुभव प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिये यह जीव अलिगग्रहण है ।
इसप्रकार स्वानुभव का लक्षण तथा उसके स्वामी का कथन उपयुक्त प्राषग्रन्थों में किया गया है । किन्तु गुणस्थान का उल्लेख नहीं है, क्योंकि द्रव्यानुयोग में गुणस्थान की अपेक्षा कथन नहीं होता । फिर भी योगी कहने से संयमी का ग्रहण हो जाता है और अन्य विशेषणों से श्रेणी में स्थित योगी का ग्रहण होता है ।
यही बात निम्न पंक्तियों से भी स्पष्ट हो जाती है—
" निविकल्पसमाधिबलेन जातमुत्पन्नं वीतरागसहजपरमानन्व सुखसं वित्युपलब्धिप्रतीत्यनुभूतिरूपं यत्स्वसंवेदन - ज्ञानं ।" पंचास्तिकाय गाथा १३ टीका ।
अर्थ - निर्विकल्पसमाधि के बल से उत्पन्न जो वीतरागसहजपरमानन्दमयसुख; उसकी संवित्ति, प्राप्ति; प्रतीति व अनुभूतिरूप स्वसंवेदनज्ञान है ।
यह कथन अध्यात्मग्रन्थ की अपेक्षा से है। तर्क - शास्त्र की अपेक्षा से " जैसे पदार्थों का ज्ञान होता है वैसे ही स्व का भी ज्ञान होता है उस ज्ञान को स्वानुभव कहा है । वह मानस - प्रत्यक्ष व इन्द्रिय- प्रत्यक्ष में गर्भित है ।
" स्वस्यानुभवनमर्थवत् ।" परीक्षामुख १।१०।
अर्थ - जैसे अर्थ का निश्चय ज्ञान होता है वैसे स्व का अनुभवन ( ज्ञान ) होता है ।
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