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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : के ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्मों का तीव्र उदय होता है अतः उनके मात्र कर्मफलचेतना होती है। श्रेणी में अर्थात् आठवें आदि गुणस्थानों में कर्मचेतना व कर्मफलचेतना अबुद्धिपूर्वक होती है ।
-जं. ग. 25-3-71/VII/ र. ला. जैन, मेरठ
ज्ञानचेतना का स्वामी शंका-ज्ञानचेतना किस जीव के होती है ?
समाधान-'पाणित्तम दिक्कता जाणं विवंति ते जीवा।' (पंचास्तिकाय गाथा ३९ ) अर्थात् प्राणों का अतिक्रम कर गये हैं वे जीव ज्ञान को वेदते हैं। इसी को टीका में कहा है कि केवलज्ञानी ज्ञान को चेतते हैं। इसी प्रकार समयसार गाथा २२३ में कहा है। समयसार गाथा ३२९ की टीका में ज्ञानी के ज्ञानचेतना कही है। इस सबका तात्पर्य यह है कि जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से भिन्न अपनी ज्ञानचेतना का स्वरूप मागम, अनुमान, स्वसंवेदनप्रमाण से जाने और उसका श्रद्धान दृढ़ करे । सो यह तो अविरत, प्रमत्त अवस्था में भी होता है। अप्रमत्त-अवस्था में अपने स्वरूप का ध्यान करता है ज्ञानचेतना का जैसा श्रद्धान किया था उसमें लीन होता है । तब श्रेणी चढ केवलज्ञान उपजाय साक्षात् ज्ञानचेतनारूप होता है (भावार्थ कलश २२३ )। प्रवचनसार गाथा १२३. १२५ से भी ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना का स्वरूप जानना ।
-जं. ग 4-7-63/1X/ सुखदेव रत्नत्रय में ज्ञान मध्य में क्यों ? शंका-सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के मध्य में सम्यग्ज्ञान क्यों रखा गया ? समाधान-"ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । चारित्रात्पूर्व ज्ञान प्रयुक्त तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ।"
-सर्वार्थसिद्धि सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता पाती है, इसलिये ज्ञान से पूर्व सम्यग्दर्शन रखा गया। चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है अतः चारित्र से पूर्ण ज्ञान का प्रयोग किया गया है।
ज'. ग. 15-6-72/VII/ रो. ला. मित्तल
सम्यग्ज्ञान का लक्षण
शंका-सोनगड़ से प्रकाशित ज्ञानस्वभाव शेयस्वभाव पुस्तक के पृ० ३०९ पर लिखा है-'नेय के तीनों अंशों-द्रव्य, गुण, पर्याय को स्वीकार करे वह ज्ञान सम्यक् है ।' क्या यह ठीक है ?
समाधान-सम्यग्ज्ञान का यह लक्षण ठीक नहीं है, द्रव्यगुण-पर्याय को जानता हुआ भी यदि कार्यकारण भाव अथवा ज्ञेयज्ञायक भाव में भूल है तो वह ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता है। श्री समन्तभद्रस्वामी ने सम्यग्ज्ञान का लक्षण निम्नप्रकार कहा है
अन्यूनमनतिरिक्त यथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥४२॥ रत्न. श्राव. जो वस्तुस्वरूप को न्यूनतारहित अधिकतारहित और विपरीततारहित संदेहरहित जैसा का तैसा जानता है वह ज्ञान सम्यक् है । शास्त्रों के ज्ञाता पुरुषों ने ऐसा कहा है ।
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