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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उपर्युक्त प्रमाणों के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में अन्य अनेक आर्ष ग्रंथों के प्रमाण हैं जिनको विद्वन्मण्डल भले प्रकार जानता है । उन सबमें यह विषय विशद रूप से स्पष्ट किया गया है कि पुण्यकर्म की सहकारिता के बिना कोई भी जीव मोक्ष नहीं जा सकता । नीच गोत्र रूप पाप कर्मोदय में संयम धारण नहीं हो सकता है । उच्च गोत्र वाले के ही संयम होता है और संयम के बिना मोक्ष नहीं होता ।
(४) क्या पुण्य भी पाप के समान सर्वथा हेय है ?
समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्म-प्रकाश, अष्टपाहुड आदि ग्रन्थों के आधार पर यद्यपि यह कहा जा सकता है कि पुण्य व पाप समान हैं, हेय हैं, त्याज्य हैं, तथापि यह विचारणीय है कि जीवपुण्य व जीवपाप तथा अजीवपुण्य व अजीवपाप क्या सर्वथा समान हैं, या किसी अपेक्षा से उनमें विशेषता भी है अथवा पुण्य सर्वथा हेय ही है या किसी अपेक्षा से उपादेय भी है ?
प्रथम चार प्रकरणों के पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव-पुण्य श्रौर प्रजीव - पुण्य मोक्षमार्ग में उपयोगी होने के कारण उपादेय भी हैं फिर भी इस प्रकरण में इस पर विशेष विचार किया जाता है, क्योंकि वर्तमान में यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।
हरात्मा [ जीव पाप ] और अन्तरात्मा ( जीवपुण्य ) दोनों संसारी हैं, क्योंकि -
'आत्मोपचितकर्म वशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः ॥ रा. वा. २।१०।१॥ '
अपने किये हुए कर्मों से स्वयं पर्यायान्तर को प्राप्त होना संसार है । इसलिये संसारी जीव की अपेक्षा से बहिरात्मा [जीवपाप] और अन्तरात्मा [ जीवपुण्य ] दोनों समान हैं अथवा बहिरात्मा [ जीव पाप] और श्रन्तरात्मा [ जीव- पुण्य ] दोनों पर समय हैं, इसलिये भी समान हैं ।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है
बहिरंतरम्पमेयं परसमयं भण्णये जिणिदेहि ।
परमप्पा सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाले ॥ १४८ ॥ ( रयणसार )
अर्थात् — बहिरात्मा और अन्तरात्मा परसमय है और परमात्मा स्वसमय है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहा है ।
इसलिये अन्तरात्मा ( जीवपुण्य ) को हेय कहा गया है ।
श्री 'परमात्मप्रकाश' गाथा १४ की टीका में कहा भी है-
'वीतरागनिर्विकल्प सहजानन्दैकशुद्धात्मानुभूतिलक्षणपरमसमाधिस्थितः सन् पण्डितोऽन्तरात्मा विवेकी स एव भवति । इति अन्तरात्मा हेय-रूपो, योऽसौ परमात्मा भणितः स एव साक्षानुपादेय इति भावार्थः ॥१४॥
अर्थात् — वीतराग निर्विकल्प सहजानन्द एक शुद्ध आत्मा की अनुभूति है लक्षण जिसका, ऐसी निर्विकल्प समाधि में जो मुनि स्थित है, वही पण्डित है, अन्तरात्मा है अथवा विवेकी है । इस प्रकार अन्तरात्मा हेय है और परमात्मा साक्षात् उपादेय है ।
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