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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४६९ साम्राज्यमन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठ- . मार्हन्त्यमन्त्यरहिताखिलसौख्यमग्र यं ॥१६-२७२॥ [महापुराण] अर्थ—सुर, असुर, मनुष्य और नाग इनके इन्द्र आदि के उत्तम-उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणी, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इन्द्रपद, जिसको पाकर पुनः संसार में जन्म नहीं लेना पड़े-ऐसा अरहंत पद और अनन्त समस्त सुख देनेवाला श्रेत्र निर्वाणपद इन सबको प्राप्ति पुण्यकर्म से ही होती है। पुण्याच्चक्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्री च दिव्यश्रियं, पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नःश्रेयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभृच्छियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं, तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥३०॥१२९॥ (म० पु०) अर्थ-पुण्यकर्म से सबको विजय करनेवाली चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त होती है, इंद्र की दिव्य-लक्ष्मी भी पुण्यकर्म से मिलती है, पूण्यकर्म से ही तीर्थंकर की लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्ष-लक्ष्मी भी पुण्यकर्म से ही मिलती है । इस प्रकार यह जीव पुण्यकर्म से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है । इसलिये हे सुधी ! तुम भी जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र आगम के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी 'प्रवचनसार' गाथा ४५ में 'पुण्यफला अरहंता' शब्दों द्वारा यह कहा है कि अरहंत पद पुण्य कर्म का फल है। नकाक्षविकलाक्षपंचकरणासंज्ञवजैर्जात या, लब्धा बोधिरगण्यपुण्यवशतः संपूर्णपर्याप्तिभिः । भव्यः संज्ञिभिराप्तलब्धिविधिभिः कश्चित्कदाचित्क्वचित, प्राप्या सा रमतां मदीयहृदये स्वर्गापवर्गप्रदा ॥१०॥४३॥ (आचारसार) अर्थात-रत्नत्रय की प्राप्ति को बोधि कहते हैं । यह बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति एकेन्द्रिय, विकलत्रय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को कभी प्राप्त नहीं होती है। पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय भव्य जीव को लब्धि की विधि प्राप्त हो जाने पर भी यह बोधि किसी को कभी किसी क्षेत्र में महान पुण्य कर्म के वश से प्राप्त होती है। स्वर्ग व मोक्ष को देनेवाली वह बोधि ( रत्नत्रय ) प्राप्त होने पर मेरे हृदय में सदा विराजमान रहे । 'उक्तरेकादशोपासकैर्वक्ष्यमाण-दशधर्माधारश्च मनुष्यगतौ केवलज्ञानोपलक्षितजीवद्रव्यसहकारिकारणसंबंधप्रारंभस्थानानंतानुपमप्रभावस्याचिन्त्यविशेषविभूतिकारणस्य त्रैलोक्यविजयकरस्य तीर्थकरनामगोत्रकर्मणः कारणानि षोडशभावना भावयितव्या इति ।' ( चारित्नसार पृ० ५० ) अर्थ-इस संसार में तीर्थकर नामकर्म और गोत्रकर्म मनुष्यगति में उत्पन्न हुए जीवों को केवलज्ञान से उपलक्षित करने में सहकारी कारण है। तीर्थंकर कर्म के उदय का प्रभाव अनन्त और उपमा रहित है। वह स्वयं जिसका चितवन भी नहीं किया जा सकता, ऐसी विशेष विभूति का कारण है और तीनों लोकोंका विजय करने वाला है। इसलिये जिन ग्यारह प्रकार के श्रावकों का वर्णन किया गया है उनको आगे कहे जाने वाले उत्तम क्षमा, आदि दश धर्मों को धारण कर उस तीर्थंकर नामकर्म की कारण-भूत सोलह भावनाओं का चितवन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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