________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३९९
अर्थात् — मुनि के मोक्षमार्ग की सिद्धि के लिये श्रागमरूपी नेत्र होते हैं । मुनि मोक्षमार्ग की सिद्धि श्रागम के द्वारा करते हैं ।
यदि उपदेश से भव्यजीवों का भला न होता तो श्री कुन्दकुन्दादि आचार्य ग्रन्थों की रचना क्यों करते श्रौर उपदेश क्यों देते ?
शब्दात्पदप्रसिद्धिः अर्थातत्त्वज्ञानं
पदसिद्ध रथं निर्णयो ज्ञानात्परं
भवति ।
श्रयः ॥ २ ॥ ( धवल पु० १ )
तत्त्व
अर्थ - शब्द से पद की सिद्धि होती है पद की सिद्धि से उसके अर्थ का निर्णय होता है । अर्थ-निर्णय से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञान से परम कल्याण होता है ।
ज.ध. पु. १ पृ. ६ पर श्री वीरसेनाचार्य ने कहा कि परमागम के उपयोग से कर्मों का नाश होता है ।
"सं च परमागमुवजोगादो चेव णस्सदि । ण चेदमसिद्ध; सुह-सुद्धपरिणामे हि कम्मक्खयाभावे तक्खयाववत्सीदो ।"
अर्थ -- यदि कोई कहे कि परमागम के अभ्यास से कर्मों का नाश होता है यह बात असिद्ध है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि शुभ या शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता ।
इन वाक्यों से सिद्ध है कि जिनवाणी से भव्यजीवों का भला होता है, इनका खंडन अनार्षवाक्यों से नहीं हो सकता ।
Jain Education International
क्या उपदेश देना जड़ की क्रिया है ?
शंका- मोक्षमार्गप्रकाशक की किरणें ( सोनगढ़ से प्रकाशित ) के पृ. १७८ पर लिखा है- "उपदेश देना मुनि का लक्षण नहीं है, उपदेश तो जड़ की क्रिया है आत्मा उसे कर नहीं सकता । क्या यह मत ठीक है ?
-. ग. 12-6-66 / IX / ........
समाधान--- सोनगढ़ का यह मत "उपदेश तो जड़ की क्रिया है, आत्मा उसे कर नहीं सकता" आर्ष ग्रन्थ विरुद्ध है । मूल उपदेश के कर्ता श्री तीर्थंकर अरिहंत भगवान हैं, क्योंकि उनके उपदेश के आधार से श्री गणधर देव द्वादशांग की रचना करते हैं । तीर्थंकर भगवान का उपदेश गुरुपरम्परा से श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों को प्राप्त हुआ था, जिसके आधार पर उन्होंने समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, धवल, जयधवल आदि ग्रन्थों की रचना की । आज जो हमको ज्ञान प्राप्त है वह इन प्रार्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय से ही उत्पन्न हुआ है ।
जिनवाणीरूप उपदेश को यदि मात्र जड़ की क्रिया मान लिया जाय श्रीर श्री तीर्थंकर भगवान को उसका कर्त्ता न माना जावे तो मेघगर्जना के समान जिनवाणी के भी प्रामाणिकता के अभाव का प्रसंग आ जायगा । जिनवाणी की प्रामाणिकता के अभाव में द्वादशाङ्ग तथा समयसार आदि अन्य सब आर्षग्रन्थ भी प्रामाणिक नहीं रहेंगे। श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org