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१३८८ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
'शरीरनामकर्मोदयात् पुद्गलविपाकिन आहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धाः समवेतानन्तपरमाणुनिष्पादिता आत्मावष्टब्धक्षेत्रस्थाः कर्मस्कन्ध सम्बन्धतो मूर्तिभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्रयन्ति ।' (ध. पु. १ पृ. २५४)
यहाँ पर आहारवर्गणा सम्बन्धी पुद्गलस्कन्ध का और आत्मा का समवायसम्बन्ध बतलाया है, किन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने गुण-गुरगी के तादात्म्यसम्बन्ध को समवायसम्बन्ध कहा है।
समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो, य अजुदसिद्धो य ।
तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा, सिद्धित्ति णिहिट्ठा ॥५०॥ ( पंचास्तिकाय ) टीका-द्रव्यगुणानामेकास्तित्वनिवृत्तित्वादनादिरनिधना सहवत्तिहि समवतित्वम् । स एव समवायो जैनानाम, तदेव संज्ञादिभ्यो भेदेऽपि वस्तुत्वेनाभेदादपृथग्भूतत्वम्, तदेव युतसिद्धि निबंधनस्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम् । ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षणसमवायभाजामयुतसिद्धिरेव, न पृथग्भूतत्वमिति ॥
समवर्तीपना वह समवाय है, वही अपृथक्पना है और अयुतसिद्धपना है। इसलिये द्रव्य और गुणों की प्रयतसिद्धि कही गई है। द्रव्य और गुण एक अस्तित्व से रचित हैं, इसलिए उनकी जो अनादि-अनन्त सहवृत्ति है वही वास्तव में समवर्तीपना है, वही जैनों के मत में समवाय है, संज्ञा आदि भेद होने पर भी वस्तुरूप से अभेद होने से वही अपृथक्पना है, युतसिद्धि के कारणभूत अस्तित्वांतर का प्रभाव होने से वही अयुतसिद्धिपना है । इसलिये समवर्तित्वस्वरूप समयवाले द्रव्य और गुणों को अयुत सिद्धि ही है, पृथक्पना नहीं है। इसप्रकार श्री वीरसेनाचार्य ने अनादिनिधन दो द्रव्यों के बंध-सम्बन्ध को समवायसम्बन्ध कहा है और श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्य और गण के तादात्म्यसम्बन्ध को समवायसम्बन्ध कहा है।
- ग. 4-12-75/........ ... 'सम्यग्दर्शन' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ शंका-'सम्यग्दर्शन' में 'सम्यक्' शब्द का क्या अर्थ है और 'दर्शन' शब्द का क्या अर्थ है ?
समाधान-'सम्यक्' शब्द का अर्थ प्रशंसा ( समीचीन ) है । सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः क्वौ समञ्चतीति सम्यग् । अस्यार्थःप्रशंसा ( स. सि. ११)
अर्थ-'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढ़िक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरणसिद्ध है। जब यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्चधातु से क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक्' इसप्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है।
'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धान है। सर्वार्थ सिद्धि ग्रन्थ में कहा भी है
'दृशेरालोकार्थत्वात् श्रद्धानार्थगतिर्नोपपद्यते ? धातूनामनेकार्थत्वाददोषः । प्रसिद्धार्थत्यागः कुत इति चेन्मोक्षमार्गप्रकरणात् ।'
'दृशि' धातु से बने हुए दर्शन शब्द का यद्यपि प्रसिद्ध अर्थ आलोक ( देखना ) है तथापि मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से 'दृशि' धातु का अर्थ 'श्रद्धान' करने में कोई दोष नहीं है।
'भावानां यथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थ दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् ।'
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