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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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'सम्' उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक 'यताः' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग प्रास्रवों से विरत हैं, उन्हें 'संयत' कहते हैं । (१० खं० ११३६९ ) प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमःप्राणी और इन्द्रियों के विषय में अशुभप्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं । (स. सि. ६।१२)। जो प्राचरण करता है, जिसके द्वारा प्राचरण किया जाए या पाचरण करना मात्र 'चारित्र' है। ( स० सि० ११)। स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः अपने स्वरूप में आचरण चारित्र है, वही आत्मप्रवृत्ति है। प्रवचनसार गाथा ७। इसप्रकार व्रत, संयम व चारित्र का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है । स्थूलदृष्टि से ये तीनों शब्द पर्यायवाची हैं ।
-0. सं. 10-5-56/VI/ क. दे. या
'संक्लेश' से अभिप्राय शंका-सातवें गुणस्थानवाला जब छठे गुणस्थान के सन्मुख होता है तो उसके संक्लेशपरिणामों की अधिकता से आहारकद्वय प्रकृति का उत्कृष्टस्थितिबंध होता है। यहाँ पर संक्लेशपरिणाम का क्या अभिप्राय है ?
समाधान-तीन शुभप्रायु के अतिरिक्त अन्यप्रकृतियों का उत्कृष्टस्थितिबंध तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामों से होता है । आहारकद्वय प्रकृतियों का बंध सातवें-आठवें गुणस्थान में होता है। आहारकद्वय प्रकृतियों के बंध करने वाले जीव के उत्कृष्टस्थितिबंध के प्रायोग्य संक्लेश परिणाम अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से गिरते समय ही सम्भव हैं। कहा भी है
_ 'आहार० आहार० अंगी० उक्क० द्विदि० कस्स० ? अण्णदरस्स अप्पमत्तसंजदस्स सागार० जाग० तप्पाओग्गसंकिलिट्ठ० पमत्ताभिमुहस्स।' [महाबंध पु० २ पृ० २५७]
अर्थ आहारकशरीर और पाहारकशरीरअङ्गोपाङ्ग के उत्कृष्टस्थितिबंध का स्वामी कौन है ? जो साकार, जागृत है तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाला है और प्रमत्तसंयतगुणस्थान के अभिमुख है, ऐसा अन्यत्र अप्रमत्तसंयतजीव उक्त दो प्रकृतियों के उत्कृष्टस्थितिबंध का स्वामी है। यहाँ पर संक्लेशसे अभिप्राय विशुद्धि की हीनता से है।
-जं. ग. 10-7-67/VII/ र. ला जैन
समवाय सम्बन्धका स्वरूप
शंका-समवायसम्बन्ध किसे कहते हैं ? समाधान–ध. पु. १५ पृ. २४ पर श्री वीरसेनाचार्य ने समवाय का स्वरूप निम्नप्रकार बतलाया है-- 'को समवाओ ? एगलेण अजुदसिद्धाणं मेलणं ।' अयुतसिद्ध पदार्थों का एकरूप से मिलने का नाम समवाय है ।
'कर्मस्कन्धेः सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वद्धमो भवेदिति चेन्न, तभ्रमणावस्थायां तत्समवायाभावात् । शरीरेण समवायाभावे मरणमढौकत इति चेन्न, आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात् । पुनः कथं संघटत इति चेन्नानाभेदोपसंहृतजीवप्र देशानां पुनः संघटनोपलम्भात् ।' (ध. पु. १ पृ. २३४ )
यहाँ पर जीवप्रदेशों का और पौद्गलिकशरीर का समवायसम्बन्ध बतलाया है।
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