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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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अर्थ-सर्वघातिस्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघातिस्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकों का अनन्तगुणहीनत्व ही क्षय कहलाता है। (यही उदयाभावी क्षयका स्वरूप है)।
-जं. ग. 27-12-65/VIII/र. ला. जैन
'चतुर्यम' का अभिप्राय शंका-तत्त्वार्थराजवातिक अ० १ सूत्र ७ वा० १४ में 'चतुर्यम' शब्द आया है । इसका क्या अभिप्राय है ?
समाधान-सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयम आदि के भेद से चारित्र पाँच प्रकार का है किन्तु सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयम-ये दोनों संयम एक हैं क्योंकि इनमें अनुष्ठानकृत भेद नहीं है। उसी संयम का द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से सामायिकसंयम नाम है और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से छेदोपस्थापनासंयम नाम है । धवल पु०१ सूत्र १२३ की टीका में कहा भी है-'सकलवतानामेकत्वमापाद्य एकयमोऽपादानाद द्रव्याथिकनयः सामायिकशुद्धिसंयमः। तदेवैकं व्रतं पञ्चधा बहुधा वा विपाद्य धारणात् पर्यायाथिकनयः छेदोपस्थापनशद्धिसंयमः । निशितबुद्धि जनानुग्रहार्य द्रव्याथिकनयदेशना, मन्दधियामनुग्रहार्थ पर्यायाथिकनयदेशना। ततो नानयोः संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति । द्वितय देशनानुगृहीत एक एव संयम इति चेन्नैष दोषः इष्टत्वात् ।'
सम्पूर्णव्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एकयम को ग्रहण करनेवाला होने से सामायिकशुद्धिसंयम द्रव्याथिकनयरूप है। उसी एक व्रत को पांच अथवा अनेकप्रकार के भेद करके धारण करनेवाला होने से छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम पर्यायाथिकनयरूप है। यहाँ पर तीक्ष्णबुद्धि मनुष्यों के अनुग्रह के लिए द्रव्यार्थिकनय का उपदेश दिया गया है । मन्दबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिये पर्यायाथिकनय का उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है । उपदेश की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना के भेद से संयम दो प्रकार का है; वास्तव में तो वह एक ही है ।
इसप्रकार सामायिकसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयम, यथाख्यातशुद्धिसंयम, यम चार प्रकार का हो जाता है । अथवा
सामायिकसंयम प्रमत्त आदि गुणस्थानों में भिन्न-भिन्न होता है अतः इन चारों गुणस्थानों की अपेक्षा यम चारप्रकार का है।
-पतावार/न. ला. जैन, भीण्डर जन्मसंतति तथा कर्मनिबहण का अर्थ शंका-जन्मसंतति व कर्मनिबर्हणं में क्या अन्तर है ?
समाधान-'जन्मसंतति' का अर्थ है जन्म का प्रवाह अर्थात् संसार । 'कर्म निबर्हण' का अर्थ है पौद्गलिक कर्मों का नाश । कहा भी है
'कर्मनिबर्हणं-संसारदुःखसम्पादककर्मणां निबर्हणो विनाशकः ।'
संसार के दुःखों को देने वाले जो कर्म उनका नाश करने वाला 'कर्म निबर्हण' है । अर्थात् कर्म जन्मसंतति के कारण हैं । उन कर्मों का विनाशक कर्मनिबर्हण है।
-पो. ग. 23-7-70/VII/रो. ला. मित्तल
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