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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
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अर्थ-शरीराकार से स्थित कर्म व नोकर्म स्वरूप स्कन्धों को अजीव कहा जाता है, क्योंकि वे चैतन्यभाव से रहित हैं। उनमें स्थित जीव भी अजीव है, क्योंकि उसका उनसे भेद नहीं है।
इसप्रकार कर्मपुद्गलस्कन्धों को कथंचित् जीव और जीवको कथंचित् अजीव बतलाया है।
श्री देवसेनाचार्य ने आलापपद्धति में भी कहा है कि जीव और पुद्गल दोनों के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त इन चारों स्वभावों सहित २१ स्वभाव होते हैं ।
'जीवपुद्गलयोरेकविंशति ॥ २९॥ जीव में और पुद्गल में इक्कीस-इक्कीस स्वभाव होते हैं । इसप्रकार एकद्रव्य का धर्म कथंचित् दूसरे द्रव्य में भी हो जाता है।
-जं.ग.2-12-71) 1. ला.मि. संसारी जीव कथंचित मूर्त है, कथंचित् प्रमूर्त शंका-मई १९६५ के सन्मतिसन्देश पृ. सं. ६२ पर लिखा है-'व्यवहारनय से संसारी जीव को मूर्स बतलाया है, किन्तु उसको न समझकर यह मानना कि यथार्थ में जीव मूर्त है, स्वरूपविपर्यास है ।' क्या संसारीजीव मूर्त नहीं है ? यदि संसारी जीव यथार्थ में मूर्त नहीं है तो पूर्वकालीन आचार्यों ने अयथार्थ कथन क्यों किया?
समाधान- भगवान् की दिव्यध्वनि में दो नयों के अधीन कथन हुआ है-'द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च । तत्र न खलु एकनयायत्ता देशना, किंच तदुभयायत्ता।' [पं. का. गा. ४ टीका ]
अर्थ-भगवान् ने दो नय कहे हैं । द्रव्याथिक (निश्चय ) और पर्यायाथिक ( व्यवहार )। वहाँ कथन एकनय के अधीन नहीं है, किन्तु दोनों नयों के अधीन होता है ।
संसारिणो मुक्ताश्च [ त. सू. २-१० ], सूत्र द्वारा जीवों के संसारी और मुक्त; ये दो भेद पर्याय की अपेक्षा कहे हैं । यह भी व्यवहारनय का विषय है, निश्चयनय का विषय नहीं है।
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया ।
गुणट्ठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥ [ स. सा. गा. ५६ ] अर्थ-ये जो वर्णादि गुणस्थानपर्यन्त २९ भाव कहे गये हैं, वे व्यवहार नय से तो जीव के होते हैं, परन्तु निश्चयनय से इनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं।
जीवे कम्मं बद्ध पुट्ठ चेदि ववहारणय भणिदं । ( स. सा. १४१) अर्थ-जीव में कर्म बद्ध तथा स्पृष्ट ( स्पशित ) हैं, ऐसा व्यवहारनय का वचन है, अर्थात् व्यवहारनय से जीव संसारी है, परन्तु निश्चयनय से जीव संसारी नहीं है ।
जीव की बद्ध अवस्था अथवा संसारी अवस्था वास्तव में सर्वथा अयथार्थ नहीं है। यदि संसारी अवस्था सर्वथा अयथार्थ हो तो मोक्ष और मोक्षमार्ग के अभाव का प्रसंग पाजायगा। इसलिए व्यवहारनय का विषय कर्मबद्ध अवस्था अथवा संसारी अवस्था सर्वथा अयथार्थ नहीं है।
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