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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२६७
१. एक द्रव्य का धर्म कथंचित् दूसरे द्रव्य में हो जाता है।
२ संसारी जीव कथंचित् रूपी प्रयवा मूर्तिक या पुद्गल है । शंका-जीव और पुद्गल के निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध के विषय में कुछ को ऐसा भ्रम क्यों होता है कि जीव के गुण व धर्म पुद्गल में चले जाते हैं और पुद्गल के गुण-धर्म जीव में चले जाते हैं ?
समाधान-भ्रम का कारण मिथ्योपदेश की प्राप्ति तथा मिथ्या मान्यता है। ऐसा भी एकान्त नहीं है कि जीव के धर्म पूदगल में न जाते हों और पुदगल के धर्म जीव में न जाते हों। जब हम प्रातः जिनमन्दिर में जाते हैं तो वहाँ पर हमको जिनबिम्ब में वीतरागता के दर्शन होते हैं। यदि जिनबिम्ब में वीतरागता के हमको दर्शन न होते तो आर्ष ग्रन्थों में जिनबिम्ब स्थापना का उपदेश न दिया जाता। वीतरागता प्रात्मा का धर्म है जिसका दर्शन पुद्गलमयी जिनबिम्ब में होता है।
'मूर्त' पुद्गल द्रव्य का गुण है, क्योंकि 'रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥५॥' ऐसा सूत्र वाक्य है। किन्तु जीव अनादिकाल से कर्मबन्धन से बंधा हुआ है इसलिये वह मूर्तभाव को प्राप्त हो जाता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार में कहा भी है
तथा च मूर्तिमानात्मा, सुराभिभवदर्शनात् ।
नह्यमूर्तस्य नभसो, मदिरा मदकारिणी ॥१९॥ बंध-अधिकार आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि उस पर मदिरा का प्रभाव देखा जाता है, अमूर्तिक आकाश में मदिरा मद को उत्पन्न नहीं करती है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने भी गो. सा. जी. गा. ५६३ में कहा है
'संसारत्था रूवा कम्मविमुक्का अरूवगमा ।' संसारीजीव रूपी ( मूर्तिक ) हैं, और कर्मरहित सिद्धजीव अमूर्तिक हैं ।
'रूपिष्ववधेः' इस सूत्र द्वारा यह बतलाया गया है कि अवधिज्ञान का विषय मूर्तपदार्थ है। संसारीजीव भी कर्मबंध के वश से पुद्गलभाव को प्राप्त हो जाने से अर्थात् मूर्त हो जाने से अवधिज्ञान का विषय बन जाता है । कहा भी है"कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभावमुवगय जीवदव्वाणं च पच्चक्खेण परिच्छित्ति कुणइ ओहिणाणं ।"
ज. ध. पु. १ पृ. ४३ अर्थ-कर्मसम्बन्ध के वश से पुद्गलभाव को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्षरूप से जानता है वह जीव है। 'अणंताणंतविस्सासुवचयसहिदकम्मपोग्गलक्खंधो सिया जीवो, जीवादो पुधभावेण तदणुवलंभादो।'
ध. पु. १२ पृ. २९६ अर्थ-अनन्तानन्त विस्रसोपचयसहित कर्मपुद्गलस्कन्ध कथंचित् जीव है, क्योंकि वह जीव से पृथक् नहीं पाया जाता है। - 'सरीरागारेण द्विदकम्मणोकम्मक्खंधाणि णोजीवा, णिच्चेयणत्तादो । तत्थ द्विवजीवा वि णोजीवा, तेसि तत्तो भेदाभावादो।' ध. पु. १२ पृ. २९७
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