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[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार
तो मोटर का रुकना अकारण हो गया। जिसका कोई कारण ( हेतु ) नहीं होता और मौजूद है वह नित्य होतो है । सत् और कारणरहित को नित्य कहते हैं ( आप्तपरीक्षा पृष्ठ ४ ) मोटर का रुकना पर्याय है अतः वह नित्य नहीं है। इसलिये मोटर के रुकने में पेट्रोल का अभाव है।
योग्यता - मोटर रुकने की योग्यता रुकने से पूर्व में थी या मोटर रुकने के पश्चात् भाई ? यदि मोटर में रुकने की योग्यता पूर्व में ही थी तो उस समय मोटर क्यों चलती रही ? यदि मोटर रुकने के पश्चात् योग्यता आई तो उस योग्यता ने क्या किया, क्योंकि मोटर तो पूर्व में ही रुक चुकी थी । यदि मोटर रुकने की योग्यता और मोटर का रुकना ये दोनों पर्याय एक साथ उत्पन्न हुई तो एकद्रव्य की दो पर्याय एकसमय में नहीं होती । पर्याय क्रमवर्ती होती हैं । मोटर में रुकने की योग्यता नित्य होती है या अनित्य । यदि नित्य है तो मोटर नित्य ही रुकी रहनी चाहिए। यदि अनित्य है तो उस योग्यता का उत्पाद किस कारण से हुआ। यदि बिना कारण उत्पाद होने लगे तो 'गधे के सींग' के भी उत्पाद का प्रसंग आ जायेगा। प्रथवा गेहूं के बोने पर जो उगने का प्रसंग आ जायेगा | अतः उत्पाद निःकारण नहीं होता। कहा भी है- 'उभयनिमित्तवशाद्भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः ' (स० सि० [अ०५, सू० ३० की टीका ) अर्थ - उभयनिमित्त ( बाह्य अभ्यन्तर प्रथवा उपादान निमित्त ) वश से भावान्तर ( नवीन भाव ) की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं। जिसका उत्पाद है उसका व्यय भी होता है व्यय भी निःकारण नहीं होता ( आप्तमीमांसाकारिका २४, पं० जयचन्दजीकृत भाषा टीका पृ० ३४ )। अतः मोटर में रुकने की योग्यता उत्पन्न हुई। वह भी बिना कारण नहीं हुई, किन्तु उसमें भी पेट्रोल का प्रभाव कारण हुआ । 'वस्तु विज्ञानसार' में श्री कानजीस्वामी ने जो यह लिखा है कि 'मोटर पेट्रोल समाप्त होने के कारण नहीं रुकती है।' यह लिखना आगम व युक्ति से विरुद्ध है एवं उपहास के योग्य है ।
सर्वज्ञ सर्व प्रथम तो यह बात है कि सर्वंश का ज्ञान पदार्थ के परिणमन में कारण नहीं है, किन्तु पदार्थ का परिणमन सर्वश के ज्ञान को कारण है ( ज० ० ५० १) पदार्थ का परिणमन सर्वज्ञ- ज्ञान के आधीन नहीं है। किन्तु प्रत्येक पदार्थं अपने-अपने अंतरंग व बहिरंग निमित्तों के आधीन परिणमता है। अतः 'सर्वज्ञज्ञान के कारण मोटर रुकी या मोटर में रुकने की योग्यता आई' ऐसा कहना कार्य कारणभाव की नासमझी है ।
सर्वद्रव्य को और उनकी सपर्यायों को सर्वज्ञ व्यवहार अथवा उपचारनय से जानता है, ऐसा श्रागमवाक्य है और इसमें किसी को विवाद भी नहीं है। यदि यह माना जाये कि सर्वज्ञ सर्वद्रव्य और सर्णपर्यायों को नहीं जानता तो सर्वज्ञ का प्रभाव हो जायेगा, किन्तु 'सर्गश है' ऐसा हेतु द्वारा आगम में सिद्ध किया जा चुका है और सर्वज्ञ के प्रभाव का खण्डन किया गया है केवलज्ञान, सम्यग्ज्ञान है यतः सर्वज्ञ पदार्थ को हीन अधिक नहीं जानते किन्तु जिसरूप पदार्थ है उसरूप ही जानते हैं । सर्व पदार्थ को जानने का यह अर्थ नहीं है कि सर्वज्ञ ने समस्त प्राकाशद्रव्य को जान लिया अर्थात् अलोकाकाश का अन्त जान लिया। क्योंकि प्रलोकाकाश अनन्त है उसको सांतरूप से सर्वज्ञ कैसे जान सकते हैं। इसप्रकार सपर्यायों को जानने का भी यह अर्थ नहीं कि सर्वज्ञ प्रत्येकद्रव्य की सम्पूर्ण पर्याय को जान ले, क्योंकि, द्रव्य अनादि अनंत है सम्पूर्णपर्याय जानने से द्रव्य सादि-सान्त हो जाता है। मतः सर्वज्ञ अनादि अनंत पदार्थ को सादि सान्तरूप कैसे जान सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि प्राकाश ग्रस्वज्ञान की अपेक्षा अनंत है और सर्गज्ञज्ञान की अपेक्षा सान्त हो अथवा प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें छद्मस्थज्ञान की अपेक्षा मनादि-अनन्त हो, किन्तु सर्गशज्ञान की अपेक्षा सादिसान्त हों । द्रश्य नित्यमनित्य है सर्वज्ञ भी निस्य अनित्यरूप से जानते हैं, मात्र नित्यरूप या मात्र प्रनित्यरूप ही नहीं जानते इसोप्रकार काल व प्रकालनय की अपेक्षा पर्याव नियत व अनियत है। सर्वज्ञ भी नियत अनियतरूप से जानते हैं। सर्वज्ञज्ञान में पर्याय नियत हों ऐसा नहीं है। एकान्तनियत (अर्थात् जिससमय जो होना है उससमय वह अवश्य होगा उसमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर
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