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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२१९ क्रमबद्धपर्याय अथवा नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्व है शंका-श्री कानजीस्वामी ने वर्ष ८ अंक ३ के आत्मधर्म पृष्ठ ४९.५० पर इसप्रकार कहा है-'अहो ! देखो तो सही ! क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में कितनी गंभीरता है ! द्रव्य की पर्याय परसे फिर जाती है यह बात तो है नहीं, परन्तु द्रव्य स्वयं अपनी पर्याय को क्रमबद्ध के नियम विरुद्ध फेरना चाहे तो भी वह फिर सकती नहीं।' श्री कानजोस्वामी का उक्त कथन क्या समीचीन है ?
समाधान-श्री कानजीस्वामी का उपयुक्त कथन सम्यक नहीं है, किन्तु 'नियतिवाद' एकान्तमिथ्यात्व का पोषक है। श्री पंचसंग्रह में एकान्त मिथ्यात्व के कथन के प्रकरण में नियतिवाद एकान्तमिथ्यात्व का स्वरूप इस प्रकार कहा है-"जब जैसा जहाँ जिस हेतु से जिसके द्वारा जो होना है। तभी तैसे ही वहाँ ही उसी हेतु से उसी के द्वारा वह होता है। यह सब नियति के अधीन है। दूसरा कोई कुछ भी नहीं कर सकता ।। ३१२॥" श्री कानजीस्वामी के क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्त में और नियतिवाद के सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं है मात्र शब्दभेद है। इसप्रकार के मिथ्यात्व के प्रचार से जीव पुरुषार्थहीन हो रहे हैं और उनका अकल्याण हो रहा है। एक सज्जन ने जो श्री कानजीस्वामी के भक्त हैं और क्रमबद्धपर्याय पर अटल श्रद्धा रखते हैं, श्री जिनमदिर में प्राना छोड़ दिया। जब अन्य सज्जनों ने मंदिर में आने के लिए उनसे प्रेरणा की तो उत्तर यह मिला कि क्रमबद्धपर्याय के अनुसार सब कार्य होते हैं, मैं उसमें हेरफेर कैसे कर सकता हैं।
-जें. सं. 22-1-59/V/ सो. अ. शाह, कलोल, गुजरात (१) मोटर अपनी योग्यता से नहीं रुकती, किन्तु पेट्रोल के प्रभाव से रुकती है (२) "सर्वज्ञ ने सबको जाना" इसका खुलासा
शंका-'वस्तुविज्ञानसार' में श्री कानजीस्वामी ने लिखा है कि मोटर पेट्रोल समाप्त होने के कारण नहीं रुकती है, अपितु मोटर रुकने की योग्यता उससमय होने से मोटर रुकती है । भगवानसर्वज्ञ के ज्ञान में भविष्य जैसा प्रतिबिम्बित होता है, वैसा ही भविष्य में होगा भी। उसमें परिवर्तन नहीं होगा। हमलोग भी मानते हैं कि भगवान के ज्ञान में जो प्रतिभासित हपा है उससे भिन्न नहीं होगा। फिर कानजीस्वामी का विरोध क्यों?
समाधान-संसार में प्रत्येक कार्य अपने अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों के मिलने पर होता है। बिना कारण के कोई भी कार्य नहीं होता। यदि कारण के बिना कार्य होने लगे तो अतिप्रसङ्गदोष आ जायेगा। (ष. ख. पु. १२, पृ० ३८२, आप्तपरीक्षा पृ० २४७, आप्तमीमांसाकारिका २१, अष्टसहस्री पृ० १५९)। यदि उपादानकारण ही कार्य में सहकारीकारण भी हो जावे तो लोक में जीव और पुद्गलमात्र दो ही द्रव्य रह जायेंगे। क्योंकि, धर्मादिद्रव्यों का जो गति आदि में सहकारीकारण है, क्या प्रयोजन रह जावेगा (पं० का० गा० २४ पर श्री जयसेनआचार्यकृत टीका)? यदि उपादानकारण ही स्वयं अपना सहकारीकारण भी हो जावे तो दूसरा दोष यह आवेगा कि नित्य ही कार्य होता रहेगा, क्योंकि, उपादान और सहकारीकारणों के होने पर कार्य अवश्य होता है। अतः मोटर के चलने या रुकने में अन्य कोई सहकारीकारण नहीं है तो मोटर नित्य चलना चाहिए या रुका रहना चाहिए । कारण के सद्भाव में कार्य का होना कारण के व्यापार के आधीन है (प्रमेयक सूत्र ५९) जब मोटर चलती है तब मोटर में पेट्रोल अवश्य होता है और पेट्रोल के अभाव में मोटर नहीं चलती। इसप्रकार पेट्रोल का मोटर के चलने के साथ अन्वय-व्यतिरेक है । अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा ही कार्यकारणभाव सुप्रतीत होता है (आप्तपरीक्षा पृ० ४०-४१)। यदि यह मान लिया जावे कि पेट्रोल के अभाव के कारण बिना ही मोटर रुकी
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