________________
१२१२
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
इसीप्रकार सर्वज्ञता की आड़ में ऐसी युक्तियों द्वारा नियतिवाद की सिद्धि की जा रही है । उस नियति को श्री अमितगति आचार्य ने पंचसंग्रह में गृहीतमिथ्यात्व कहा है। 'नियति' जिसको पंचसंग्रह में गृहीतमिथ्यात्व कहा है उसका स्वरूप गाथा ३१२ में इसप्रकार दिया है-'जब जैसे जहाँ जिस हेतु से जिसके द्वारा जो होना है, तभी, तैसे ही, वहाँ हो उसी हेतु से उसी के द्वारा वह होता है । यह सर्व नियति के आधीन है। दूसरा कोई कुछ भी नहीं कर सकता।' नियति की सिद्धि के लिये जो युक्तियाँ दी गई हैं वे आगमविरुद्ध होने से युक्त्याभास हैं।
(१० ख० पु० ९ पृ. ३२) सर्वज्ञभगवान ने पदार्थ को 'नियति-अनियतिस्वरूप' देखा है। श्री प्रवचनसार में भी नियतिनय और अनियतिनय दोनों नयों का कथन है । यदि सर्वथा 'नियति' स्वीकार करली जावे तो पुरुषार्थ का अभाव हो जायगा और उपदेश निरर्थक हो जावेगा। पुरुषार्थ व उपदेश के निरर्थक हो जानेपर मोक्षमार्ग का प्रभाव हो जायगा। दराचार फैल जावेगा। दुराचारी का स्पष्ट यह उत्तर होगा कि इसमें मेरा क्या दोष, सर्वज्ञ के ज्ञान में ऐसा ही भलका था। मैं उसको अन्यथा कैसे कर सकता था ? प्रायश्चित्त आदि का अभाव हो जावेगा। सर्वथा नियति स्वीकार करने पर अनेकों दोषों का प्रसंग आ जायगा और आगम से विरोध हो जायगा।
केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान है, प्रमाण है। केवलज्ञान से जैसा वस्तु का स्वरूप है उसीप्रकार से जाना, अन्यथा नहीं जाना । विवक्षितपर्याय अथवा प्रत्येकपर्याय की अपेक्षा द्रव्य अनित्य अर्थात् सादि-सान्त है, किन्तु पर्याय-संततिअपेक्षा अथवा द्रव्यदृष्टिअपेक्षा द्रव्य अनादि-अनन्त अर्थात नित्य है। इसीप्रकार केवली ने जाना है।
आकाशद्रव्य अखंड क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त है, किन्तु प्रत्येक प्रदेश की अपेक्षा सान्त है। केवलज्ञानी ने भी आकाशद्रव्य को इसीप्रकार जाना है।
नियतिनय, कालनय, स्वभावनय, देवनय की अपेक्षा से 'नियति' है; किन्तु अनियतिनय, अकालनय, प्रस्वभावनय और पुरुषार्थनय की अपेक्षा 'अनियति' है । ऐसा ही वस्तुस्वरूप केवलज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ ने देखा है ।
-जै. सं. 6/13-2-58/VI/ बंशीधर शास्त्री, कलकत्ता केवली का भाविज्ञत्व विषयक प्रपञ्च शंका-केवली के पास कोई मनुष्य जाकर यह पूछे कि-मेरी यह बंद मुष्टि कितनी देर में खुलेगी तो केवली क्या निश्चित उत्तर देंगे? जबकि मुष्टि का खोलना और बन्द करना उस मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। स्यादवादी केवली क्या भविष्य का अपेक्षाकृत उत्तर नहीं देते ? अगर भविष्य को निश्चित मान लिया जाता है तो फिर मनुष्य का पुरुषार्थ क्या अर्थ रखता है ? किसी अदृष्ट निश्चितशक्ति के अनुसार ही मनुष्य को प्रवर्तना पड़ता है या मनष्य कुछ स्वतंत्र भी है ? शराब के पीने से नशा चढ़ता है या शराब को पीना ही था और नशे को चढ़ना ही था इसलिये नशा चढ़ता है ? अगर केवली के भविष्यज्ञान को अपेक्षाकृत निश्चित मान लिया जाय तो क्या बाधा है ? जैसे किसी को मायु ६० वर्ष को निश्चित होने पर भी अकालमृत्यु पहिले भी संभव हो सकती है। उत्तरपुराण पर्व ७६ में बताया है कि-गौतम गणधर ने घोणिक के पूछने पर कहा 'अगर तुम इन मुनि को अन्तमुहूर्त के पहले जाकर संबोधित कर दोगे तो मुक्त हो जायेंगे, नहीं तो नरक जा सकते हैं। इससे भविष्यज्ञान के विषय में हमें किन निष्कर्षों को सूचना मिलती है ? क्या केवली के भविष्यज्ञान में प्रतिसमय की पर्याय निश्चित है ? अगर है तो फिर उपदेश संयमादि व्यवहार क्यों ? और मनुष्य को व्यर्थ पुरुषार्थ करने की भी जरूरत क्या? ऐसी हालत में अनाचार की प्रवृत्ति क्यों संभव नहीं ? ज्ञान में पर्यायों का झलकना दूसरी बात है पर बिना विकल्प के दूसरों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org