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व्यक्तित्व पौर कृतित्व ]
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- यदि यह भी मान लिया जावे कि श्री स्वामिकातिकेयाने प्रेक्षा गोथा ३२१-३२२ में 'नियत' का कथन है तो वह अभ्यनय सापेक्ष 'नियति' का कथन है। एकान्त या सर्वथानियति का कथन नहीं है। इसप्रकार भी स्वामिकातिकेयानप्रेक्षा के कथन में विरोध नहीं है ।।
: केवलज्ञानी, अनन्तज्ञानी, क्षायिकज्ञानी या सर्वज्ञ ये सब पर्यायवाची नाम हैं। जो सर्वद्रव्यों की सर्व पर्यायों को युगपत् एकसमय में जानते हैं और जिनके ज्ञान से बाहर कुछ शेष नहीं रहा वे सर्वज्ञ हैं । सर्वज्ञ का यह लक्षण प्रायः सभी दि. जैन ग्रन्थों में पाया जाता है और सर्वज्ञ की सिद्धि भी नाना हेतओं द्वारा की गई है फिर ऐसा कौन दि जैन होगा जो सर्वज्ञ के अस्तित्व को स्वीकार न करे।
इस सर्वज्ञता की आड़ में अनेकों युक्तियों द्वारा दि० जनागम के मूल सिद्धान्तों का खंडन किया जा रहा है तथा एकान्त का पोषण किया जा रहा है । जो इसप्रकार है
पर्यायों की संततिअपेक्षा प्रथवा द्रव्यदृष्टि से प्रत्येकद्रव्य अनादि अनन्त है, क्योंकि प्रसत् का उत्पाद नहीं और सत् का व्यय ( नाश ) नहीं होता ( पंचास्तिकाय गाथा ११-१५)। किन्तु निम्न युक्ति के बल पर सर्वज्ञता की आड में द्रव्य को पर्याय संतति अपेक्षा भी मादि सांत सिद्ध किया जा रहा है, जो आगम विरुद्ध है। वह यूक्ति इस प्रकार है-सर्वज्ञ ने प्रत्येक द्रव्य की सवपर्यायों को जान लिया है और वे सब पर्याय क्रमबद्ध हैं। कोई भी पर्याय सर्वज्ञ के ज्ञान से बाहर रही नहीं। अत: क्रमबद्धता में पड़ी हुई प्रादि व अन्त की पर्याय को सर्वज्ञ ने जान ली। इसलिये प्रत्येक द्रव्य सादि-सान्त ही है, अनादि-अनन्त किसी भी अपेक्षा से नहीं है। यदि सर्वज्ञ ने आदि व अन्त की पर्याय को नहीं जाना तो सर्वज्ञता का अभाव होता है। द्रव्य को अनादि-अनन्त कहनेवाले सर्वज्ञता का लोप करते हैं। ऐसा इस युक्ति के बल पर कहा जाता है, किन्तु उनको यह युक्ति आगम विरुद्ध है।
सर्वज्ञ ने भी द्रव्य को अनादि-अनन्त कहा है और अनादि-मनन्त रूप से जाना है। यदि द्रव्य को सर्वथा सादि-सांत मान लिया जावे तो यह प्रश्न होता है कि विवक्षित द्रव्य का उत्पाद सत् पदार्थ से हुआ या असत् से। यदि असत् का उत्पाद होने लगे तो अव्यवस्था हो जावेगी। यदि अन्य सत् पदार्थ से विवक्षितद्रव्य का उत्पाद हआ तो उस अन्य सत पदार्थ का किसी अन्य सत् पदार्थ से उत्पाद माना जावेगा। इसप्रकार अनवस्था दोष या जावेगा। इस यक्ति के बल से भी द्रव्य पर्याय-संतति-अपेक्षा अनादि-अनन्त सिद्ध होता है । इसपकार द्रव्य को कथंचित् अनादि अनन्त कहने वाले सर्वज्ञता का लोप करनेवाले नहीं हैं।
दूसरी कुयुक्ति इसप्रकार है-'सर्वज्ञ ने समस्त आकाशद्रव्य को जान लिया है तो आकाशद्रव्य का अन्त भी जानना चाहिये। आकाशद्रव्य का अन्त जान लेने पर आकाश द्रव्य अनन्त न होकर सान्त हो जाता है। यदि आकाश द्रव्य का अन्त नहीं जाना तो सर्वज्ञता का अभाव हो जाता है।' इस युक्ति के बल पर यह कहा जाता है कि आकाशद्रव्य को अनन्त कहनेवाले सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उनकी यह युक्ति प्रागमानुकूल न होने से कुयुक्ति है। कहा भी है सूत्रविरुद्ध युक्ति होती नहीं है, क्योंकि वह युक्त्याभासरूप होगी।
(१० खं० पु० ९ पृ. ३२) सर्वज्ञ ने आकाशद्रव्य को अनन्तरूप से जाना है और प्रागम में भी आकाशद्रव्य अनन्त कहा गया है। यदि प्राकाश द्रव्य को सान्त मान लिया जावे तो यह प्रश्न होता है, आकाश के पश्चात् (बाहर ) क्या है ? यदि कुछ है तो वह सातवां द्रव्य कौनसा है । इस प्रकार सातवें द्रव्य के पश्चात् बाहर आठवाँ और आठवें के पश्चात नौवाँ मादि कहना पड़ेगा। जिससे अनवस्था दोष आता है। अतः प्राकाशद्रव्य अनन्त है यह सिद्ध हो जाता है। आकाशद्रव्य को अनन्त कहनेवाले सर्वज्ञता को अस्वीकार करनेवाले नहीं हैं।
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