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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
अर्थात् —'अर्थ पर्यायें' सूक्ष्म होती हैं, क्षण-क्षण में नाशवान्, वचन के अगोचर श्रीर छद्यस्थ की दृष्टि का विषय नहीं होतीं । 'व्यंजनपर्यायें' स्थूल होती हैं, चिरकाल तक रहनेवाली, वचनगोचर और छद्यस्थ की दृष्टि का विषय होती हैं । एक समयवाली पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं और चिरकालतक रहनेवाली पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं ।
" ण च वियंजणपज्जायस्स सध्वस्त विणासेण होदव्वमिदि नियमो अस्थि, एयंतवावत्पसंगादो ।"
धवल पु० ७ पृ० १७८ । अर्थात् -- सभी व्यंजन पर्यायों का अवश्य नाश होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकान्तवाद का प्रसंग आजायगा ।
- जै. ग. 17-1-66/ VIII / ल. घ. जैन
पर्याय का लक्षण
शंका- अर्थपर्याय का क्या लक्षण है ?
समाधान - ' अर्थपर्यायाः सूक्ष्माः क्षणक्षयिणस्तथावाग्गोचराविषया भवन्ति ।' पंचास्तिकाय गाथा १६ श्री जयसेनाचार्य की टीका । अर्थपर्याय सूक्ष्म होती है, क्षण-क्षण में नाश को प्राप्त होने वाली है । वचन के अगोचर है और किसी इन्द्रिय का विषय नहीं है । अर्थात् एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं ।
- जै. ग. 18-6-64 / IX / ब्र. लाभानन्द
(१) उत्पादन्ध्यय- ध्रौव्य युक्त द्रव्य
(२) पर्याय - पर्यायों के भेद एवं मेरु आदि पर्यायों की नित्यानित्यात्मकता का प्रदर्शन
शंका- मोक्षशास्त्र अध्याय ५ सूत्र ३० में "उत्पाद व्यय- ध्रौव्य-युक्त सतु" कहा है। द्रव्य जो है प्रोव्य
रूप है, किन्तु पर्याय की अपेक्षा उत्पाद और व्यय होते हुए ही धोग्य है । जो वस्तु की पर्याय उत्पन्न होती है उसका विनाश भी होता है, लेकिन जो अनादिनिधन तथा अनन्तान्त काल से ध्रौव्य है उसमें उत्पाद और व्यय किस अपेक्षा से समझा जाय ? उत्पाद किस पर्याय का होता है और व्यय किस पर्याय का होता है ? जैसे कि सूर्य चन्द्रमा और विमानादिक, द्वीप, समुद्रादिक, अकृत्रिमचैत्यालय प्रतिमादिक अनादि से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे, तो इनमें कौनसी पर्याय की उत्पत्ति होती है और कौनसी पर्याय का व्यय होता है ?
समाधान - दिव्यध्वनि में भगवान का उपदेश दो नयों के आधीन हुआ है ( १ ) द्रव्यार्थिक नय ( २ ) पर्यायार्थिकय । इसी बात को श्री पंचास्तिकाय गाथा ४ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
" द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौद्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किंतु तदुभयायत्ता।"
अर्थ - भगवान ने दो नय कहे हैं -द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । वहाँ ( दिव्यध्वनि में ) कथन एक नय के अधीन नहीं होता, किन्तु दोनों नयों के अधीन होता है ।
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द्रव्य नित्य — नित्यात्मक है । द्रव्यार्थिकनय का विषय द्रव्य की नित्यता है और पर्यायार्थिकनय का विषय द्रव्य की अनित्यता है ।
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