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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
१९८३
___ कर्मबन्ध अनादि का है इसलिये वैभाविकशक्ति भी अनादि से है। किन्तु कर्मों का क्षय हो जाने पर वैभाविकशक्ति का भी अभाव हो जाता है ।
-जं. ग. 24-7-67/VII/ ज.प्र. म. कु. विभाव नाम की कोई भिन्न द्रव्य-शक्ति नहीं है, यह पर्यायशक्ति है शंका-गुणों में विभावरूप परिणमन होता है विभावशक्ति से । तो विभावनामको शक्ति गुणों से भिन्न है या गुणों में ही विभावरूप परिणमन होने की शक्ति है।
समाधान-जबतक द्रव्य शुद्ध है उसके गुण भी शुद्ध हैं और उस शुद्धद्रव्य का परिणमन तथा उसके गुणों का परिणमन भी शुद्ध होता है अर्थात् स्वभावपरिणमन होता है। बंधदशा में द्रव्य अशुद्ध हो जाता है, क्योंकि उसका दूसरे द्रव्य से मेल अर्थात् बंध हो गया है। प्रशुद्धद्रव्य का विभावपरिणमन होता है और उसके गुणों का भी विभावपरिणमन होता है कहा भी है
"शुद्धपरमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणाः। द्वघणुकाविस्कन्धे वर्णादयो विभावगुणाः। शुद्ध परमागृरूपेणाव. स्थानं स्वभावद्रव्यपर्यायः वर्णादिभ्यो वर्णान्तरादिपरिणमनं स्वभावगुणपर्यायः । द्वयणुकाविस्कन्धरूपेण परिणमनं विभावद्रव्यपर्यायाः । तेष्वेव वयणुकाविस्कन्धेषु वर्णान्तरादिपरिणमनं विभावगुणपर्यायाः।" पंचास्तिकाय गाथा ५।
अर्थात्-शुद्ध परमाणु में जो वर्णादिगुण हैं वे स्वभावगुण हैं । द्वि-प्रणुकादि स्कन्धों में जो वर्णादिगुण हैं वे विभावगुण हैं । शुद्धपरमाणुरूप स्वभावद्रव्यपर्याय है । और उसके गुणों में परिणमन स्वभाव गुणपर्याय है। द्विअणुक आदि स्कन्ध विभावद्रव्यपर्याय हैं और उन स्कन्धों के गुणों में परिणमन विभावगुणपर्याय है।
विभावनाम की कोई भिन्न द्रव्यशक्ति नहीं है । दूसरे द्रव्य के साथ बन्ध हो जाने पर द्रव्यप्रशुद्ध हो जाता है और उसमें विभावनामकी पर्यायशक्ति उत्पन्न हो जाती है। बंध का अभाव हो जाने पर वह विभावशक्ति भी समाप्त हो जाती है।
-जें. ग. 12-6-67/IV/ म. च शास्त्री कथंचित् व्यंजन पर्याय अविनाशी है शंका- व्यंजनपर्याय को यदि चिरकाल स्थित रहने वाली मान ली जावे तो द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य कैसे संभव होगा ?
समाधान-द्रव्य में अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय दो प्रकार की पर्यायें होती हैं। उनमें से अर्थपर्याय समयवर्ती अर्थात एकसमय की स्थितिवाली होती है। इस अर्थपर्याय की अपेक्षा द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद व व्यय होता रहता है। व्यंजनपर्याय चिरकाल तक रहनेवाली होती है। कोई-कोई व्यंजनपर्याय नाशवान भी नहीं होती. अनादि-अनन्त कालतक रहती है। श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १६ की टीका में कहा भी है
"तत्रार्थपर्यायाः सूक्ष्माः क्षणक्षयिणस्तथावाग्गोचराविषया भवन्ति । व्यंजनपर्यायाः पुनः स्थूलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्यग्रस्थदृष्टिविषयाश्च भवन्ति । समयवतिनोऽर्यपर्याया मण्यते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भव्यते।"
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