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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
तो जीव का अन्य लक्षण बताया जाता है। ऐसे ही क्षयोपशम, योग व लेश्या आदि के भिन्न-भिन्न लक्षण पाये जाते हैं।
धवल पुस्तक १ में पृ० १४७ पर कहा है "ततः सामान्य विशेषात्मकं बाह्यार्थ ग्रहणं ज्ञानं, तवात्मक स्वरूपग्रहणं दर्शन मिति सिद्धम्" अतः सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यविशेषात्मक प्रात्मस्वरूप को ग्रहण करनेवाला दर्शन है। किन्तु ज्ञान सविकल्प है और दर्शननिर्विकल्प है अत: उसमें गुणगुणी का भेद-विकल्प नहीं होता, जैसे केवलज्ञान द्रव्य-गुणों-पर्यायों को जानता तो है, किन्तु उसमें ऐसा विकल्प नहीं होता कि यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है। केवलज्ञान बाह्यपदार्थों को जानता है और केवलदर्शन आत्मा को जानता है ऐसा स्पष्ट कथन जयधवल पु० १, पृष्ठ ३०१ से ३१८ में गाया संख्या १५ से २० में आया है। जयधवल पुस्तक एक के पृ० ३२५-३२६ पर तथा धवला पुस्तक ६ के पृष्ठ ३४ पर भी ऐसा कथन है।
जैन न्यायशास्त्रों में चेतना को ज्ञान कहकर ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा गया है। जैसे जीव का लक्षण चेतना न कहकर ज्ञान कह देते हैं । चेतना का उसके मुख्य भेदज्ञान में उपचार किया गया है। चेतना ज्ञान-दर्शनरूप है अता चेतना स्व-पर प्रकाशक है । चेतना का उपचार ज्ञान में करने से ज्ञान भी स्व-पर प्रकाशक हो जाता है। निमित्त व प्रयोजन होने पर उपचार होता है । ( आलाप पद्धति )। यहाँ अन्यमती को प्रतिबोध कराना प्रयोजन है: अतः चेतना का उपचार ज्ञान में करने से सिद्धान्त से कोई बाधा नहीं आती।
-पब 1-3-80/ ज. ला. जन, भीण्डर
दर्शनगुण का कार्य शंका-दर्शन को स्वग्राहक ( आत्मग्राहक ) धवल पु० १, ७ मादि में कहा है । तो क्या 'आत्मा का ज्ञान' दर्शनगुण को पर्याय है ? क्या केवलदर्शनपर्याय आत्मा के समस्त गुणों व पर्यायों को जानती है और केवलज्ञान आत्मा को नहीं जानता है ?
समाधान –'आन्तरिक आत्मज्ञान' दर्शनगुण की पर्याय है, क्योंकि वह अन्तर्मुख चित्प्रकाश है, किन्तु 'परीक्षामुख' आदि न्यायशास्त्रों में दर्शनगुण का कयन न होने से आत्मज्ञान को भी ज्ञानगुण की पर्याय कहा है। केवलदर्शन प्रात्मा के सर्वगुण व सद्भावात्मक पर्यायों को जानता है । [ धवल पु० ११३८५ ] '
-पल 21-4-80/ज. ला. जैन, भीण्डर स्वकीय रागद्वेष दर्शन के विषय हैं शंका-अपने स्वयं के रागद्वषों का ज्ञान ( छद्मस्य अवस्था में ) ज्ञान गुण को होता है या दर्शन गुण को?
समाधान-अपने राग-द्वेष की जानकारी दर्शनगुण के द्वारा होगी, क्योंकि ज्ञान साकार होने से परपदार्थों को जानता है।
-पन 6-5-80/ ज. ला. जन, भीण्डर
१. "ज्ञान आत्मा को नहीं जामता, दर्शन मानता है।" इस विषय को स्पष्ट समझने के लिए धवल ११३८५, ध. १।१४८; वृहदव्यसंग्रह गाथा ४४ की टीका, जयधवल ११३२६ आदि देखने चाहिए।
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