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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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की पर्याय छद्मस्थ जीव के पाई जाती है । केवली भगवान के ज्ञानगुण की क्षायिकपर्याय केवलज्ञानरूप श्रीर दर्शनगुण की क्षाविपर्याय केवलदर्शनरूप एकसमय में एकसाथ पाई जाती है। केवली भगवान के आवरणकर्म का सर्वथा क्षय होगया है अतः उनके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग भी युगपत् होते हैं, किन्तु उपस्थ के आवरण कर्म का उदय है अतः उस उदय के कारण दोनों उपयोग एकसाथ न होकर क्रमशः होते हैं । परन्तु क्षायोपशमिकज्ञान और दर्शनलब्धिरूप से छद्मस्थावस्था में भी एक साथ होता है । विशेष के लिए ध. पु. १, ६, ७ व १३ देखना चाहिये ।
- पॉ. ग. 20-6-63 / IX / प्र ेमचन्द
ज्ञान गुण परप्रकाशक है
शंका- क्या ज्ञान स्व को नहीं जानता ? फिर इसे स्व पर प्रकाशक कैसे कहा जाता है । स्पष्ट करें ।
समाधान - ज्ञान साकार होता है जैसे दर्पण में परपदार्थों का आकार तो पड़ता है, किन्तु स्व का आकार नहीं पड़ता । ज्ञान में स्व का आकार नहीं पड़ता, इसलिए वह स्व को नहीं जानता दर्शन निराकार होता है । इसलिए वीरसेनाचार्य ने अन्तर्मुखचित्प्रकाश को दर्शन तथा बहिर्मुखचित्प्रकाश को ज्ञान कहा है । यदि ज्ञान स्व पर प्रकाशक हो तो दर्शन के लिए कोई विषय नहीं रहता ।
अन्यमत वालों ने दर्शन गुण नहीं माना है । अतः न्याय ग्रन्थों में भी दर्शन गुण का कथन नहीं किया गया। उन ग्रन्थों में ज्ञान को ही स्व पर प्रकाशक कहा है। इसका विशेष कथन धवल पु० ७ में है ।
- पत्र 19-280 / ज. ला. जैन, भीण्डर
दर्शनगुण ही श्रात्मा को जानता है
शंका- ज्ञान स्वयं आत्मा को नहीं जानता, दर्शनगुण हो आत्मा को जानता है तो दर्शनगुण इसप्रकार से जानता है क्या कि यह मेरी आत्मा है, ये उसके गुण हैं, यह गुणी है, यह उसकी वर्तमानपर्याय है आदि-आदि। यानी दर्शनगुण का विषय 'स्व' है, सो तो ठीक है, परन्तु वह स्व को गुण-गुणी मेवरूप भी जान सकता है या नहीं। यदि हाँ तो वर्शन का विषय 'विशेष' भी हुआ तथा यदि गुण-गुणी का भेद करके दर्शन आत्मा को नहीं जाने तो फिर तो आत्मा के पूरे-पूरे ज्ञान का ही अभाव ठहरता है। क्योंकि आत्मा को ज्ञानगुण तो जानता है नहीं, ऐसा स्वीकार किया जारहा है कि केवली की 'आत्मा को आत्मपर्यायों को व अनन्त आत्मगुणों को उनका दर्शनगुण जान रहा है या ज्ञानगुण ? जैन न्यायशास्त्रों में ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा गया है तो फिर इस तरह तो जैन न्यायशास्त्र गलत हो गए, क्योंकि वास्तव में तो आत्मा का ज्ञान परप्रकाशक ( पर ज्ञाता ) ही है तथा न्याय में कहा गया है स्व पर प्रकाशक यह उत्तर तो ठीक नहीं होगा कि अभ्यमतियों को समझाने के लिए ऐसा किया गया है, क्योंकि अन्यमतियों को समझाने के लिए कहीं सिद्धान्त को गलत करके उनके सामने नहीं रखा जा सकता है ? ऐसा करने से तो हमारे श्रावक भी भ्रमित हो जाएंगे ।
समाधान - जैनागम में शंकाकार के कथनानुसार ही कथन है। जैनागम का मुख्य अभिप्राय शिष्य को प्रतिबोध कराने का है, क्योंकि अन्यमती आत्मा में दर्शनगुण है, ऐसा नहीं जानता । उसे समझाने के लिए चेतनागुण को ज्ञानगुण के नाम से कहकर ज्ञान को स्व पर प्रकाशक कहा गया है जैसे बालकों या बालजनों को सम झाने के लिए 'जो चलता है, बोलता है वह जीव है' ऐसा लक्षण कहा जाता है । जब वह कुछ प्रतिबुद्ध हो जाता है
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