________________
११४४ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
आगमज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ), तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व की युगपत्तावाले को ही मोक्षमार्गत्व होने का नियम सिद्ध होता है।
-जै. ग. 15-6-72/VII/ रो. ला. मित्तल मोक्षमार्ग हेतु ज्ञान [ भावश्रुतज्ञान ] अत्यावश्यक है शंका-कहा जाता है 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' किन्तु भीमकेवली को अक्षरमात्र का ज्ञान नहीं था। यदि यह बात ( सम्यग्ज्ञान ) अनिवार्य होती तो भीमकेवली को केवलज्ञान क्यों हुआ? अतः मोक्षमार्ग के लिये मात्र सम्यग्दर्शन आवश्यक है।
समाधान-अक्षर या शब्द का ज्ञान द्रव्यश्रुतज्ञान होता है । पदार्थ का ज्ञान भावश्रुतज्ञान होता है । जैसे तियंच को यह शब्द ज्ञान नहीं कि यह मेरी संतान है और यह मेरा मित्र है और यह मेरा शत्रु है फिर भी संतान के प्रति संतानरूप प्रवृत्ति, मित्र के प्रति मित्ररूप प्रवृत्ति और शत्रु के प्रति शत्रुरूप प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति का मूल कारण भावश्रुतज्ञान है । शब्द ज्ञान के बिना भी भावश्रुतज्ञान होता है। ऐसा ही "मोक्षमार्गप्रकाशक" ग्रन्थ में कहा है-"जीव अजीवादिक का नामादिक जानो वा मति जानौ, उनका स्वरूप यथार्थ पहिचान श्रद्धान किये सम्यक्त्व हो है । तातै तुच्छ ज्ञानी तिथंच प्रादि सम्यग्दृष्टि हैं, सो जीवादि का नाम न भी जाने हैं तथापि उनका सामान्यपने स्वरूप पहिचान श्रद्धान करे हैं। ताते उनको सम्यक्त्व की प्राप्ति हो है। जैसे कोई तियंच अपना वा
औरनिका नामादि तो नाहीं जाने, परन्तु आप ही विष आपो माने है, औरनिको पर माने है; तैसे तुच्छज्ञानी जीव अजीव का नाम न जाने, परन्तु ज्ञानादि स्वरूप आत्मा है, तिस विषै आपी माने है और शरीरादि को पर माने है। ऐसा श्रद्धान जाके हो है, सोही जीव अजीव का श्रद्धान है। जैसे सोई तियंच सुखादिक का नामादिक न जाने है, तथापि सुख अवस्था को पहिचान ताके अथि आगामी दुःख का कारण को पहिचान ताको त्यागे है । बहुरि जो दुःख का कारण बनि रहया है, ताके प्रभाव का उपाय करे है। तुच्छज्ञानी मोक्ष प्रादि का नाम न जाने, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्ष प्रवस्था को श्रदान करि ताके अथि अागामी बंधकारण रागादि को त्यागे है। बहुरि जो संसार दुःख का कारण है, ताको शुद्ध भाव करि निर्जरा किया चाहे है ।" इससे सिद्ध होता है कि शब्दज्ञान बिना भावज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ऐसा ही वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५७ की टीका में कहा-"यदि शिवभूति मुनि पांचसमिति और तीनगुप्तियों का कथन करनेवाले द्रव्यश्रुत को जानते थे तो उन्होंने 'मा तूसह मा रूसह' इस एक पद को क्यों नहीं जाना । इसी कारण से जाना जाता है कि पांच समिति और तीनगुप्तिरूप आठ प्रवचनमातृका प्रमाण ही उनके भावज्ञान था और द्रव्यश्र त कुछ भी नहीं था।" प्रतः 'सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' इस सूत्र में ज्ञान शब्द से भाव श्रुतज्ञान ग्रहण करना चाहिये न कि द्रव्यश्रुत ( शब्दश्रुत ) ज्ञान । जीव, अजीव प्रादि सात तत्त्वों के ज्ञान के बिना अथवा स्वपर के भेदज्ञान बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। कहा भी है
'भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाये किल केचन ।
अस्येवा भावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥' (स. सा. संवर अधि.) अर्थ-जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जो कर्म से बँधे हैं वे इसी भेदविज्ञान के प्रभाव से बंधे हैं। यद्यपि सम्यग्दर्शन तत्त्वज्ञान पूर्वक होय है, किन्तु ज्ञान को सम्यक विशेषण सम्यग्दर्शन होने पर ही होय है, ज्ञान का सम्यक्त्व व मिथ्यात्व विशेषण सम्यग्दर्शन ब मिथ्यादर्शन की सहचरता से होय है। अथवा जो जीवादि पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान उस स्वभाव से ज्ञान का परिणमना वह तो सम्यग्दर्शन है और उसी तरह जीवादि पदार्थों का ज्ञान उस स्वभाव कर ज्ञान का होना वह सम्यग्ज्ञान है तथा जो रागादि का त्यागना उस स्वभावकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org