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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
अर्थ-चारित्र वास्तव में धर्म है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है। साम्य मोह-क्षोभरहित आत्मा का परिणाम है।
इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने साम्यरूप चारित्र का लक्षण इसप्रकार कहा है'साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोमाभावावत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ।'
अर्थ-दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीव का परिणाम साम्य अर्थात् वीतरागता है।
श्री पंचास्तिकाय गाथा १५४ को टीका में भी कहा है
'रागाविपरिणत्यभावावनिन्वितं तच्चरितं; तदेव मोक्षमार्ग इति । तत्र यत्स्वभावावस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्वितं तदत्र साक्षान्मोक्षमार्गत्वेनावधारणीयमिति ।'
अर्थात-रागादिपरिणाम के अभाव के कारण जो अनिदित है वह चारित्र है, वही मोक्षमार्ग है। स्वभाव में प्रवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र.जो कि परभावों में अवस्थित अस्तित्व से भिन्न होने के कारण अत्यन्त प्रनिदित है, वह साक्षात् मोक्षमार्गरूप से अवधारना ।
वीतरागचारित्र में ही बंध के हेतु ( राग-द्वेष ) का प्रभाव है और इससे ही कर्मों की निर्जरा होती है इसीलिये वीतरागचारित्र को साक्षात् मोक्ष मार्ग कहा गया है।
श्री उमास्वामि ने कहा भी है
बन्धहेस्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥१०॥२॥ अर्थ-बंध हेतुपों के प्रभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। शंका-पूर्ण वीतरागता कौनसे गुणस्थान में हो जाती है ?
समाधान-मोहनीयकर्म रागद्वेष की उत्पत्ति में मुख्य कारण है । बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से रागद्वष का अभाव हो जाने के कारण पूर्ण वीतरागता हो जाती है । इसीलिये प्रवचनसार गाथा को टीका में और पंचास्तिकाय गाथा १५४ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने लिखा है कि 'मोहनीयकर्म से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह क्षोभ ( रागद्वेष ) के अभाव के कारण जीव के अत्यन्त निर्विकार परिणाम होते हैं। और वह परिणाम ही चारित्र हैं तथा मोक्षमार्ग है।
शंका-जब क्षीणमोह गुणस्थान में पूर्ण वीतरागचारित्र हो जाता है तो उसी समय मोक्ष क्यों नहीं हो जाती?
__समाधान-यह सत्य है कि वीतरागता अथवा साम्य भाव की पूर्णता क्षीणमोह गुणस्थान में हो जाती है और यह वीतरागता ही साक्षात् मोक्ष का कारण है। जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १७२ में कहा है
"साक्षान्मोक्षमार्गपुरस्सरो हि वीतरागत्वम् ।" अर्थात्-- साक्षात् मोक्षमार्ग में सचमुच वीतरागता ही अग्रसर है।
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