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व्यक्तित्व पोर कृतित्व ]
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संपज्जवि णिवाणं देवासुर मण्यरायविहवेहि ।
जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥६॥ ( प्रवचनसार ) अर्थात्--दर्शन और ज्ञान की मुख्यतासहित चारित्र से जीव को इन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती प्रादि की सम्पदासहित निर्वाण मिलता है ।
श्री जयसेनाचार्य भी इसकी टीका में लिखते हैं
"सरागचारित्रात् पुनर्वेवासुरमनुष्यराजविभूतिजनको मुख्यवृत्याविशिष्ट पुष्यबन्धो भवति, परम्परानिर्वाणंचेति ।"
अर्ष-सरागचारित्र से मुख्यरूप से विशिष्टपुण्य बंध होता है जिससे देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती की विभूति मिलती है तथा परम्परासे निर्वाण मिलता है।
"तपोधनाः शेषतपोधनाना यावत्यं कुर्वाणा सन्तः कायेन किमपि निरवद्ययावृत्यं कुर्वन्ति । वचनेन धर्मोपदेशं च शेषमौषधानपानादिकं गृहस्थानामाधीनं तेन कारणेन वैयावृत्यरूपो धर्मो गृहस्थानां मुख्यः तपोधनानां गौणः। द्वितीयं च कारणं निर्विकारचिच्चमत्कारभावना प्रतिपक्षभूतेन विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनातरौद्रध्यानद्वयेन परिणताना गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति यावृत्यादि धर्मेण दानवञ्चना मवति तगोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलामो भवति । ततश्च परपरया निर्वाणं लभंत इत्यभिप्रायः ।"
[प्रवचनसार गाथा २५४ टीका ] अर्थ-शेष तपोधन की वैयावृत्ति करनेवाला मुनि काय से पापरहित वैयावृत्ति का कार्य करता है और वचन से धर्मोपदेश देता है। प्रौषधि और भोजन प्रादि गृहस्थों के आधीन है। इसलिये मुनियों के वयावत्ति गौण है और गृहस्थों के मुख्य है। विषय-कषाय के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले आतं-रोद्र खोटे ध्यान से बचने के लिए तथा मुनियों के संसर्ग से निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग के उपदेश के लाभ के लिये भी गृहस्थ वैयावृत्ति करता है। इसलिये वैयावृत्ति से परम्परया निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
"सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तवा मुख्यवृत्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च । नो पुण्यबन्ध. मात्रमेव ।" [ प्रवचनसार गाथा २५५ की टीका ]
अर्थ-सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग से मुख्यपने पुण्यबंध होता है, किन्तु परम्परा से निर्वाण की प्राप्ति होती है, मात्र पुण्यबंध नहीं होता।
इन पार्ष वाक्यों से सिद्ध है कि पूर्व अवस्था में रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है, किन्तु परम्परा से मोक्ष का कारण है।
शंका-वीतरागता को मोक्ष का साक्षात कारण बतलाया वीतरागता, रत्नत्रय और सम्यक्चारित्र में क्या अन्तर है या ये तीनों एक ही हैं?
समाधान -वीतरागता, रत्नत्रय और सम्यकचारित्र इन तीनों का एक ही अभिप्राय है। श्री कुन्वन्दाचार्य ने कहा भी है
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्दिवो । मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ प्रवचनसार
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