SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] .. [ ११०३ 'अरहंतणमोक्कारो संपहिबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ ति तत्थ वि मुणोणं पवृत्तिप्पसंगादो।' जयधवल पु. १०९ अर्थ-अरहंत-नमस्कार तत्कालीनबन्ध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है, इसलिये उसमें भी ( अरहंत-भक्ति में भी ) मुनियों की प्रवृत्ति होती है। इन आगमवाक्यों से सिद्ध है कि निर्विकल्पध्यान के बिना भी अरहंतभक्ति आदि के द्वारा भी कर्मों का संवर व निर्जरा होती है। -प. ग. 4-1-68/VII/ शा. कु. बड़जात्या (१) संवर का स्वरूप, हेतु, प्रास्रव के हेतु (२) गुप्ति प्रादि से पुण्य व पाप दोनों का संवर शंका–आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं । क्या बन्ध के निरोध को भी संवर कह सकते हैं ? यदि हाँ तो दोनों में कौन अधिक ठीक है ? संवर का कारण गुप्ति, समिति, धर्म, परीषहजय व चारित्र कहा है । सो क्या ये पुण्य आस्रव के भी कारण हैं ? यदि नहीं तो पुण्यास्रव का कोन कारण है ? यदि हाँ तो संवर और पुण्य आस्रव के एक ही कारण कैसे होते हैं ? समाधान-आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं । मोक्षशास्त्र अ०६ सूत्र १ । बन्ध के निरोध को बन्धम्युच्छित्ति कहते हैं । आस्रवपूर्वक बन्ध होता है । संवर हो जाने पर बन्ध-व्युच्छित्ति तो बिना कथन किये भी सिद्ध हो जाती है । सात तत्त्वों में इसी कारण संवर तत्त्व कहा है। गुप्ति आदि संवर के कारण हैं। जिस कर्मोदय से जिन-जिन प्रकृतियों का बन्ध होता है उस-उस प्रकृति के उदय के प्रभाव में उससे बंधने वाली प्रकृतियों का संवर हो जाता है। जैसे मिथ्यात्वोदय से १६ प्रकृतियों का और अनन्तानुबन्धीचतुष्क के उदय से २५ प्रकृतियों का बन्ध होता था। इनके उदय के अभाव में १६ व २५ प्रकृतियों का संवर व बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है। मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धीचतुष्क का अभाव पुण्यप्रकृतियों के आस्रव के कारण नहीं है। जिस-जिस गुणस्थान में जो कषाय व योग है वह आस्रव का कारण है और जितनी कषाय का अभाव है वह संवर व निर्जरा का कारण है। गुप्ति आदि कषायों के प्रभाव स्वरूप हैं, अतः वे संवर का कारण हैं, किन्तु उस समय जो कषाय व योग हैं वे पुण्यास्रव के कारण हैं। दसवें गुणस्थान तक पुण्य व पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियों का आस्रव होता रहता है। ११ वें १२ वें १३ वें इन तीन गुणस्थानों में केवल सातावेदनीयरूप पुण्यप्रकृति का आस्रव होता है; क्योंकि वहाँ पर कषायोदय का अभाव है। गुप्ति आदि से मात्र पापप्रकृतियों का संवर होता हो सो भी बात नहीं, किन्तु देवायु व देवगति आदि पुण्यप्रकृतियों का भी संवर सातवें, आठवेंगुणस्थान में होता है। पांचवें गुणस्थान में मनुष्यायु व मनुष्यगति आदि छह पुण्य प्रकृतियों का संवर होता है और चौथे गुणस्थान में तिर्यंचायुरूप पुण्यप्रकृति का संवर हो जाता है। -जं. ग. 9-1-64/IX/ र. ला. जैन सविकल्पावस्था में भी संवर तत्त्व सम्भव है शंका-संवर तत्व क्या सविकल्प अवस्था में भी संभव है ? . समाधान-सविकल्प अवस्था में भी संवरतत्त्व संभव है। मिथ्यात्व कर्मोदय से जिनप्रकृतियों का आस्रव होता था, सासादनादि गुणस्थानों में मिथ्यात्वोदय के प्रभाव में उनका संवर हो जाता है। इसीप्रकार अनन्तानबन्धी आदि कर्मोदय के कारण जिन कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है, उन-उन कर्मोदय के अभाव में उन-उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy