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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! ववसमिदीगुत्तीओ धम्माणपेहा परिषहजओ य।
चारित बहुभेया णायव्वा भाव संवरविसेसा ॥३५॥ ( वृ० व० सं० ) अर्थ-पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा बाईस परीषह-जय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस तरह ये सब भावसवर के विशेष भेद जानने । इनसे द्रव्यसंवर होता है।
-जें.ग. 13-8-64/1X/बसंतकुमार
प्रतिमाधारी एवं प्रायिकाओं के संवर में विशेषता शंका-फरवरी १९६६ के 'सन्मति संदेश' में पृ० १२ पर यह प्रश्न है कि "जितना संवर पहली प्रतिमा वाले के होता है उतना ही संवर आगे की प्रतिमा वालों के व आयिकाओं के होता है सो कैसे ?" इसके उत्तर में श्री पं० कूलचन्दजी ने यह लिखा है कि "पांचवें गुणस्थान में चारित्रसम्बन्धी विशुद्धि में तारतम्य है, सबके एक समान विशुद्धि नहीं होती। इसलिए उत्तरोत्तर संवर में भी विशेषता जान लेनी चाहिये।" चतुर्ण गुणस्थान में ४१ प्रकृतियों का संवर है और इसमें मनुष्यगति आदि दस प्रकृतियों के मिल जाने से पांचवेंगुणस्थान में ५१ प्रकृ. तियों का संवर होता है। अब प्रश्न यह है क्या प्रथम प्रतिमा में ५१ प्रकृतियों से कुछ कम प्रकृतियों का संवर रहता है और ग्यारहवीं प्रतिमा में या आर्यिकाओं के ५१ से अधिक प्रकृतियों का संवर होता है ।
समाधान-मिथ्यात्वकर्म से १६ प्रकृतियों का आस्रव होता है, अनन्तानुबन्धी कषाय से २५ प्रकृतियों का आसव होता है और अप्रत्याख्यानावरणकषाय से १० प्रकृतियों का आस्रव होता है। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व कर्मोदय का अभाव है, इसलिये मिथ्यात्वकर्मसम्बन्धी १० प्रकृतियों का आस्रव न होने से दूसरे गुणस्थान में १० पतियों का संवर है। तीसरे व चौथे गुरणस्थानों में मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धीकषाय इनका उदय नहीं है, अत: इन दोनों गाणस्थानों में मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी ४१ प्रकृतियों का आस्रव नहीं होता है, अर्थात तीसरे और चौथे गुणस्थानों में ४१ प्रकृतियों का संबर है। पांचवें गुणस्थान में अर्थात् प्रथम प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा तक सभी प्रतिमानों में अप्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय भी नहीं रहता अतः इन सब प्रतिमाओं में अप्रत्याख्यानावरणकषायसम्बन्धी १० प्रकृतियों का प्रास्रव भी नहीं होता। पंचमगुणस्थानवर्ती सभी प्रतिमा वालों के तथा आर्यिकाओं के ५१ प्रकृतियों का ही संवर होता है, हीनाधिक प्रकृतियों का संवर नहीं होता है । धवल पु० ८ सूत्र ७ व ८ तथा १५, १६, १७, १८ में इन प्रकृतियों के नाम का निर्देश है।
यद्यपि पचम गुणस्थान में प्रति प्रतिमा उत्तरोत्तर विशुद्धता बढ़ती जाती है, जिसके कारण स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध में अंतर पड़ता है तथापि संवरसंबंधी ५१ प्रकृतियों की संख्या में कोई विशेषता नहीं है।
-ज'. ग. 4-4-66/IX/र. ला. जैन निविकल्प ध्यान के बिना भी संवर-निर्जरा शंका-क्या निर्विकल्प ध्यान के बिना संवर तथा निर्जरा नहीं होती? समाधान-शुभ परिणामों से भी कर्मों का संवर व निर्जरा होती है। कहा भी है'सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।' जयधवल पु० १०६
अर्थ-यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय ( निर्जरा ) न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो नहीं सकता।
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