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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-हिंसा, सत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से निवृत होना व्रत है। प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह वत है। मनुष्य विचार करता है कि जो ये हिंसादिक परिणाम हैं वे पाप के कारण हैं। जो पापकार्य में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें इसी भव में राजा दण्ड देते हैं और पापाचारी परलोक में दुःख उठाते हैं, इसप्रकार वह बुद्धि से समभकर हिंसादिक से विरत हो जाता है । स. सि. अ.७ सू. १ की टीका।
पापों से निवृत्ति अथवा विरति तो बंध का कारण नहीं हो सकती। यदि पापों से निवृत्ति या विरति बंध का कारण माना जावे तो क्या पापों में प्रवृत्ति या रति संवर-निर्जरा का कारण होगी ? सब पापों से निवृत्त होना सामायिक संयम नामक एक व्रत है। वही व्रत छेदोपस्थापना संयम की अपेक्षा पाँच प्रकार का है। दस धर्मों में से संयम भी एक धर्म है। चारित्र के पांच भेदों में से प्रथम व द्वितीय भेद सामायिक चारित्र व छेदोपस्थापना चारित्र है। तत्त्वार्थसत्र अध्याय ९ में धर्म व चारित्र को संवर का कारण कहा है तो फिर व्रत बंध या आस्रव के कारण कैसे हो सकते हैं ?
त. सू अ. ८ सूत्र १ में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बंध का कारण कहा है। व्रत न तो मिथ्यादर्शनरूप हैं, न अविरतिरूप हैं, न प्रमादरूप न कषायरूप हैं और न योगरूप हैं, फिर व्रत बंध के कारण कैसे हो सकते हैं ? बंध का कारण जो अविरति उसका प्रतिपक्षी व्रत है। जैसे बंध का कारण मिथ्यादर्शन का प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन बंध का कारण न होकर संवर व निर्जराका कारण है उसीप्रकार बंध के कारणभूत अविरति का प्रतिपक्षी व्रत भी संवर और निर्जरा का कारण है।
त सू.अ. ६ सूत्र २१ में सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शन को देवायू के आस्रव का कारण कहा है। उसका यह अर्थ है कि सम्यग्दर्शन के सद्भाव में कषाय व योग के कारण जो प्रायुकर्म का आस्रव होगा वह मात्र सौधर्म प्रादि विशेष देवों की आयु का आस्रव होगा। सम्यग्दर्शन तो स्वयं प्रास्रव या बंध का कारण नहीं है। कहा भी है-'जितने अंश से सम्यग्दर्शन है उतने अंश से बंध नहीं है जितने अंश से राग है उतने अंश से बंध होता है।' पुरुषार्थसिद्धय पाय श्लोक २१२ । इसीप्रकार त. सू अ. ६ सूत्र १२ व २० में सराग संयम को साता वेदनीय व देवायु के बंध का कारण कहा है वहाँ पर भी संयम अर्थात् चारित्र को बंध का कारण कहने का अभिप्राय नहीं है, किन्तु संयम के होते हुए राग आदि के द्वारा जो वेदनीयकर्म व आयुकर्म का आस्रव होगा उसमें सातावेदनीय व देवायु का प्रास्रवबंध होगा। पुरुषार्थसिद्धय पाय श्लोक २१४ व २१५ में कहा भी है-'जितने अंश से चारित्र है उस अंश से बंध नहीं है तथा जितने अंश से राग है उतने अंश से बंध होता है। योग से प्रदेशबंध तथा कषाय से स्थितिबंध होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र न योगरूप है न कषायरूप है अतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र से बंध नहीं होता।'
तत्त्वार्थसूत्र अ०७ में जो व्रत को पुण्यास्रव का कारण कहा है उसका यह अभिप्राय है कि व्रत के समय यदि अहिंसा, सत्यवचन पौर दी हुई वस्तु के ग्रहणरूप प्रवृत्ति होती है तो वह प्रवृत्ति बंध का कारण है। व्रत तो चौदहवें प्रयोगकेवली गुणस्थान में भी है, क्योंकि प्रमत्तसंयतगुणस्थान से मागे सब जीव संयत होते है। किन्तु चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान में प्रास्रव व बंध नहीं है, क्योंकि वहाँ व्रत का सद्भाव होते हुए भी प्रवृत्ति का अभाव है। अतः पापों से निवृत्ति या विरति बंध का कारण नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति प्रास्रव का कारण है ।
१. 'संयमानुवादेन संयताः प्रमत्तादयोगकेवल्यन्ताः।' स0 सि0 11
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