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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
से शुद्धोपयोग होता है । सयोगि व प्रयोगि इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है ।"
उक्त ग्रागमप्रमारणों से यह सिद्ध हुआ कि भावलिंगी महाव्रती प्रमत्तसंयत ( छठे गुणस्थानवाले मुनि ) के शुभोपयोग होता है । वह शुभोपयोग इन तीन ( सम्यक्त्व, संयम व बुद्धि पूर्वक शुभराग ) भावों से मिलकर बना है | यदि शुभपयोग का अर्थं केवल शुभराग ही लिया जावे तो छठागुणस्थान नहीं बनता, क्योंकि छठे गुणस्थान में सम्यक्त्व व संयम अवश्य होता है । यद्यपि छठेगुणस्थानवाले मुनि के शुभोपयोग है, शुद्धोपयोग नहीं है और वह उस काल में शुभोपयोग से तन्मय है, किन्तु उसके प्रतिसमय संवर, निर्जरा होती है, क्योंकि उसके शुभोपयोग का अंश सम्यक्त्व व संयम मौजूद है । संवर व निर्जरा मोक्ष के कारण हैं ।
छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के शुभोपयोग का एक अंश शुभराग भी है, उसके कारण संयम की रक्षार्थ आहार, विहार, धर्मोपदेश, स्तुति, वंदना, पंचपरमेष्ठि गुणस्मरण आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति भी होती है, किन्तु यह प्रवृत्ति विषय - कषायरूपी दुयन-नाश का कारण संसारस्थिति को छेदने के लिये है। कहा भी है 'संसार स्थिति विच्छेदकारणं, विषयकषायोत्पन्न दुर्ध्यान विनाशहेतुभूतं च परमेष्ठिसंबन्धिगुणस्मरणदानपूजादि कुर्युः ।
( प. प्र. गा. ६१ टीका )
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छठे गुणस्थानवाले के असम्पूर्ण रत्नत्रय है अतः उसके शुभराग भी है जिसके कारण उसके पुण्यबंध होता है वह बंध भी मोक्ष का उपाय है, संसार का उपाय नहीं है । कहा भी है
" सम्मादिट्ठीपुष्णं ण होइ संसार कारणं नियमा ।
मोक्रसहोइ हे जइ वि णियाणं ण सो कुणइ ॥ ४०४ ॥ भावसंग्रह
असमग्रं भावयतो
रत्नत्रय मस्तिक मंबंधो यः ।
स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २११० ॥ पुरुषार्थ सिद्धय पाय
अर्थ - सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कभी नहीं होता, यह नियम है । यदि सम्fष्ट द्वारा किये हुए पुण्य में निदान न किया जावे तो वह पुण्य नियम से मोक्ष का ही कारण है ।। ४०४ ॥ भावसंग्रह | असम्पूर्ण रत्नत्रय को भावनेवाले के जो कर्मबन्ध है वह विपक्ष ( राग ) कृत है और मोक्ष का उपाय अवश्य है, बंध का उपाय नहीं है ।। २११ ।। पुरुषार्थ सिद्धय पाय ।
छठे गुणस्थान में निदान का अभाव है अत: छठे गुणस्थान में शुभराग के कारण जो पुण्यबंध होता है वह मोक्ष का ही कारण है ऐसा उपर्युक्त प्रागम में कहा है ।
क. पा. पु. १ पृ. ६ पर भी कहा है 'यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो नहीं सकता ।' ( सुहसुद्ध परिणामेहि कम्मक्खया भावे तक्खयाणुववत्सीदो । )
गुणस्थानवाले के भावमोक्ष के कारण हैं, क्योंकि वहाँ पर रत्नत्रय मोक्षमार्ग है ।
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---. सं. 9-1-58/VI / रा. दा. कैराना
(१) व्रत बन्ध के कारण नहीं हैं।
(२) सम्यग्दर्शन श्रादि से कदापि बन्ध नहीं होता; उनके साथ रहने वाला राग ही बन्धका कारण है
शंका - व्रत तो बंध के कारण हैं । जैनशास्त्रों में व्रत को ग्रहण करने का क्यों उपदेश दिया गया ?
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