________________
१०२४ ॥
[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
अतः अणु-स्कन्ध दोनों पर्याय व्यवहारनय के विषय हैं । अणु शुद्धपर्याय है, अतः अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का विषय है। स्कन्ध अशुद्धपर्याय है अतः उपचरितासभूतव्यवहारनय का विषय है।
"शुद्धपरमाणुरूपेणावस्थानं स्वभावतव्यपर्यायः वर्णादिभ्यो वर्णान्तरादिपरिणमनं स्वभावगुणपर्यायः वृषणकादिस्कन्धरूपेण परिणमनं विभावतव्यपर्यायाः तेष्वेव द्वचणुकाविस्कस्कन्धेषु वर्णान्तराविपरिणमनं विभावगुणपर्यायाः।"
(पंचास्तिकाय गा० ५ टीका) यहाँ पर यह कहा गया है कि शुद्धपरमाणु स्वभावद्रव्यपर्याय है और द्वघणुक भादि स्कन्ध विभावद्रव्यपर्याय है।
पुद्गलस्कन्ध विभावद्रव्यपर्याय होने से उपचरितसद्भूतव्यवहार का विषय है। पुद्गलपरमाणु स्वभाव. द्रव्यपर्याय होने से अनुपरितसद्भूतव्यवहार का विषय है। नियमसार गाथा २९ में उपचरितसद्भूतव्यवहार की अपेक्षा अनुपचरितसद्भूत को निश्चय कहकर पुद्गलपरमाणु को निश्चय का विषय कहा है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थ में किस स्थल पर निश्चय से क्या प्रयोजन है, इसको जानने के लिये नयचक्र, बालापपद्धति प्रादि ग्रन्थों से निश्चय और व्यवहार के भेद-प्रभेद तथा उनके लक्षणों को जानने की अत्यन्त आवश्यकता है। अन्यथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों का यथार्थ भाव समझ में आना कठिन है।
-तं. ग. 1-6-72/VII/ र. ला. जैन, मेरठ जीव व पुद्गल की गति व स्थिति भी पर्यायरूप है शंका-क्या गति व स्थिति पर्याय है?
समाधान-गति व गतिपूर्वक स्थिति पर्यायें हैं। अन्यथा स्थिति पर्याय नहीं है।'
-पत्र 21-4-80/ज. ला. जेम, भीण्डर
शब्द व प्रकाश किस इन्द्रिय के विषय हैं ? शंका-शब्दवर्गणा किस इन्द्रिय को विषय है तथा का? प्रकाश किस इन्द्रिय का विषय है। आज के वैज्ञानिक तो कहते हैं कि प्रकाश स्वयं अदृश्य है, किन्तु प्रकाश में वस्तुए दिखती हैं ? क्या यह ठीक है । आगम में तो लिखा है कि "छाया, चांदनी, आतप, धूप, अंधकार आदि चाइन्द्रिय के द्वारा दिखाई देने के कारण स्थूल हैं।" अर्थात् सूर्य का प्रकाश चक्षुइन्द्रिय से प्राह्य है ( महापुराण २४.१५०-१५३ ) समाधान करें।
समाधान-शब्दवर्गणा करणं इन्द्रिय से ग्राह्य है, किन्तु कब? जब वे शब्दरूप परिणत हो जायें तब कर्णेन्द्रिय को विषय होती हैं । छाया, प्रकाश, अन्धेरा आदि चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य हैं । आपका कथन समीचीन है । आगम ही सर्वोपरि मान्य है।
-पन 31-3-79/ज. ला.जैन, भीण्डर
१. इसको विशेष समझने के लिए पं0 काय गा0 8 व उसकी टीका देखनी पाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org