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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सहहमाणो अत्थे असंजवा वा ण णिवादि ॥ २३७॥
संस्कृत टीका-असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपश्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात् ? ततः संयमशून्यात श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अतः आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतेव ॥२३७॥
अर्थ-पदार्थों का श्रदान करनेवाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है। यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान व यथोक्त आत्मतत्त्व का अनुभूतिरूप ज्ञान प्रसंयम को क्या करेगा? अर्थात् कुछ नहीं करेगा। इसलिये संयमशून्य श्रद्धान व ज्ञान से मोक्ष-सिद्धि नहीं होती। इस आगम ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्व के अयुगपतत्ववाले के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता है।
__इसप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र हीनता के कारण मोक्षमार्ग घटित नहीं होता है। इसीलिये चारित्र हीन (चारित्र रहित ) सम्यग्दृष्टिपुरुष का सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान निरर्थक है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने अष्टपाहुड़ मे कहा भी है
गाणं चरित्तहीणं लिंगरगहणं च दंसणविहूर्ण । संजमहीणो य तवो जइ चरह णिरत्ययं सव।
श्री अकलंक देव ने भी कहा है
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनः क्रिया। धावन्नध्यन्ध को नष्टः पश्यन्नपि च पड गुकः ॥
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि चारित्रहीन पुरुष का सम्यग्ज्ञान व उसका अविनाभावी सम्यग्दर्शन निरर्थक है ।
श्री अकलंकदेव ने यह बतलाया है-जंगल में दो मनुष्य थे एक अंधा दूसरा स्वांखा था, किन्तु लंगड़ा था। जंगल में अग्नि लग जाने पर अन्धा मनुष्य इधर-उधर दौड़ता है, किन्तु यथार्थ मार्ग ज्ञात न होने के कारण जंगल से बाहर निकल नहीं पाता और अग्नि में जलकर नष्ट हो जाता है।
स्वांखा मनुष्य यथार्थ मागं तो जानता है और उस मार्ग का श्रद्धान भी है, किन्तु लंगड़ा होने के कारण जंगल से बाहर नहीं जा सकता है वह स्वांखा भी अंधे के समान अग्नि में जलकर नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार असंयत-सम्यग्दृष्टि संसार से निकलने का यथार्थ मार्ग जानता है और श्रद्धान भी है, किन्तु चारित्रहीन होने के कारण संसार से निकल नहीं सकता। वह भी मिथ्याष्टि द्रव्यलिंगी मुनि के समान संसार में दुःख उठाता है, अतीन्द्रिय सुख नहीं प्राप्त कर सकता।
णाणं चरित्तहीणं, सणहीणं तवेहि संजुत्तं ।
अरणेसु भावरहियं, लिंगग्गहरणेण किं सोक्खं ॥ अष्टपाहुड़ इन पार्ष प्रमाणों से सिद्ध है कि चौथेगुणस्थान में रत्नत्रय प्रगट नहीं होता है। इसलिये चौथे गुणस्थान वाला मोक्षमार्गी नहीं है और निर्वाण भी प्राप्त नहीं कर सकता अत। उसका सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तत्कालिक मोक्षमार्ग की अपेक्षा निरर्थक है।
-जं. ग. 31-12-70/VII/ अमृतलाल
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