________________
८४६ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
चतुर्थं गुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का कदाग्रह करता है वह तो प्रत्यक्ष मिध्यादृष्टि है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य के वचनानुसार चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण कहने में कोई बाधा नहीं है ।
वह प्राचरण मुनि तुल्य भी हो सकता है, श्रावक रूप भी हो सकता है, साधारण पुरुष जैसा भी हो सकता है, किन्तु सबका नाम सम्यक्त्वाचरण है, क्योंकि अप्रत्याख्यान का उदय पाया जाता है ।
- जै. ग. / 16-1-69 / VII to 1X / र. ला फॉन शंका- लाटीसंहिता १० १७९ पर कहा है कि चारित्रमोहनीय कर्म चारित्र गुण का ही पात करता है, आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का घात नहीं करता है। क्या यह कथन आर्ष ग्रन्थों के अनुकूल है ?
समाधान - चारित्रमोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियाँ हैं । जिनमें से अनन्तानुबन्धी- चारकषाय तो सम्यग्दर्शन का घात करती हैं और शेष २१ प्रकृतियाँ चारित्र का घात करती हैं। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा भी है
पढमादिया कसाया सम्मतं देससयलचारित।
जहखादं घावंति य गुणणामा होंति सेसावि ॥४५॥ ( गो. क )
अर्थ - पहली धनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है। दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कवाय देशवारिश का घात करती है अर्थात् किंचित् भी चारित्र उत्पन्न नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण कषाय सकल चारित्र को घातती है । संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र को घातती है। इस कारण इनके नाम भी वैसे ही हैं जैसे कि इनमें गुण हैं।
प्रथम आदि अर्थात् अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय क्रमशः सम्यक्त्व, देशसंयम, सकल संयम और पूर्ण शुद्धिरूप यथारूपात चारित्र का घात करती है। किन्तु अनन्तानुबन्धी के नाश ( उदयाभाव ) होने पर श्रात्मा में सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होता है । इसी प्रकार शेष के अभाव में देशसंयम आदि गुण प्रगट होते हैं ।
आग्रन्थों में तो यह स्पष्ट कथन है कि चारित्रमोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धीप्रकृति सम्यग्दर्शन का घात
करती है ।
शंका- लाटीसंहिता पृ० १९३ पर पंचाध्यायी के आधार से चौबे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपावरण चारित्र का प्रगट होना लिखा है सो क्या स्वरूपाचरणचारित्र संभव है ?
समाधान- पंचाध्यायी में श्री पं० राजमहल ने तो स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण निम्न प्रकार कहा है
कर्मादानक्रिया रोधः स्वरूपाचरणं च यत्।
धर्मः शुद्धोपयोगः स्यात् संव चारित्रसंज्ञकः ॥१२/७६३॥
अर्थ – कर्मों के ग्रहण करने की क्रिया का रुक जाना ही स्वरूपाचरण है। वही धर्म है, वही शुद्धोपयोग है और वही चारित्र है ।
Jain Education International
चतुर्थगुणस्थान में तो पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों का आसव व बंध होता है अर्थात् ग्रहण होता है अतः वहाँ पर स्वरूपाचरण कैसे संभव हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि ४१ प्रकृतियों का संदर हो जाने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org