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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अनायतन हैं। सम्यग्दृष्टि इन छह अनायतनों का त्याग करता है। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगृहन अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना इन आठ दोषरूप सम्यग्दृष्टि प्रवृत्ति नहीं करता।
"प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्यक्त्त्वम् ।" धवल पु० १ पृ० १५१
अर्थात्-प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रगटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं।
रागादि का अनुद्रेक-प्रशम है, संसारादि से भीरुता संवेग है, सर्वप्राणियों में मंत्री अनुकम्पा है, जीवादि पदार्थों का जैसा स्वभाव है वैसा मानना आस्तिक्य है ।
"चैत्यगुरुप्रवचनपूजादि लक्षणा सम्यक्त्त्ववर्धनीक्रिया सम्यक्त्व क्रिया ।" ( सर्वार्थसिद्धि ) अर्थ-चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदिरूप सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली सम्यक्त्ववक्रिया है।
इसरूप सम्यग्दृष्टि की क्रिया या प्रवृत्ति होती है इसी को श्री कुन्वकून्दाचार्य ने सम्यक्त्वाचरण कहा है जो असंयतसम्यग्दृष्टि के संभव है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि के स्वरूपाचरणचारित्र किसी भी आचार्य ने नहीं कहा है।
यदि यह कहा जाय कि सम्यक्त्व के शंकादि पच्चीस दोषों के त्याग को स्वरूपाचरणचारित्र कह दिया जावे तो इसमें क्या हानि है ? चतुर्थगुरणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व के पच्चीस दोष त्यागरूप आचरण को स्वरूपाचरणचारित्र संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि मोह-क्षोभ से रहित अत्यन्त निविकार आत्म-परिणाम को अर्थात यथाख्यातचारित्र की स्वरूपाचरणचारित्र संज्ञा है।
"रागद्वषामावलक्षणं परमं यथास्यात-रूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं मणन्ति इवानों तदभावेऽन्यच्चारि. त्रमाचरन्तु तपोधनाः। ५० प्रा० १० पृ० १५७ ।
अर्थ-राग-द्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरणचारित्र ही निश्चयचारित्र है, वह इससमय पंचमकाल में भरतक्षेत्र में नहीं है इसलिये साधुजन अन्यचारित्र का आचरण करें।
चारित्र के पांच भेद हैं- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात । यह पाँचों प्रकार का चारित्र निनथमुनि के छठवें प्रादि गुणस्थानों में ही संभव है । चतुर्थ गुणस्थान में गृहस्थियों के इन पांचों प्रकार के चारित्र का अंश भी संभव नहीं है। अतः चतुथंगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्हष्टि के स्वरूपाचरणचारित्र ( यथाख्यातचारित्र ) या उसके अंश की कल्पना करने से जिनवाणी का अपलाप होता है ।
ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान के क्षायिकचारित्र है और चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्रमोहनीय के अप्रत्याख्यानावरणादि सर्वघातिप्रकृतियों का उदय होने से प्रचारित्र औदयिकभाव है। क्षायिकभाव व औदयिकभाव एक जाति के नहीं हो सकते। अतः यह लिखना कि 'जो चारित्र सिद्धों में है उसकी झलक चतुर्थगुणस्थान में भी है,' एक उन्मत्तवाली चेष्टा है।
क्या सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र भी अवश्यम्भावी है ?
समाधान--(ग)-प्रश्न यह है कि क्या सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र भी अवश्यंभावी है? क्या चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता?
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