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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"सम्मामिच्छादिट्टि त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥४॥ अर्थ-सम्यग्मिथ्याइष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है । ( धवल पु० ५ पृ० १९८)
इस सूत्र की टीका में श्री वीरसेन आचार्य ने लिखा है-सम्य ग्मिध्यात्वप्रकृति का उदय रहते हुए अवयवीरूप सम्यक्त्वगुण का तो निराकरण रहता है, किन्तु सम्यक्त्व का अवयवरूप अंश प्रगट रहता है। इसप्रकार क्षायो. पशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाति ही होते, क्योंकि जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्व के सम्यक्त्वका अभाव है। किन्तु श्रद्धान भाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है और श्रद्धान भाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि उसमें विपरीतता का अभाव है और न उनमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा का ही अभाव है, क्योंकि समुदायों में प्रवृत्त हए शब्दों की उनके एकदेश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्वक्षायोपशमिकभाव है।"
इसीप्रकार चतुर्थ गुणस्थान में चारित्रगुण का अभाव रहते हुए भी चारित्र का अवयवरूप अंश भी प्रगट रहता तो श्री गौतम गणधर चतुर्थगुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशामिकभाव कहते, औयिकभाव न कहते।
द्वादशांग के सूत्रों में श्री गौतमगणघर का इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी जो विद्वान् चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का समर्थन करते हैं, उनको द्वादशांगपर श्रद्धा नहीं है।
चारित्र में लब्धि और उपयोग रूप दो भेद सम्भव नहीं यदि यह कहा जाय कि चतुर्थगुणस्थान में हरसमय स्वरूपाचरणचारित्र नहीं होता, किन्तु जिससमय स्वानभति होती है उसीसमय स्वरूप में स्थितिरूप स्वरूपाचरणचारित्र होता है इसीलिये चतर्थगणस्थ को अपेक्षा औदयिकभाव कहा गया है क्षायोपशमिकभाव नहीं कहा गया है। सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, इसपर यह प्रश्न होता है कि चतुर्थगुणस्थान में हरसमय स्वानुभूति व स्वरूप में स्थिति क्यों नहीं होती? यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि स्वानुभूति लब्धि व उपयोगरूप दो प्रकार की होती है। लब्धिरूप स्वानुभूति तो हरसमय रहती है, किन्तु जिससमय ज्ञानावरणकर्म के विशेष क्षयोपशम के कारण उपयोगरूप स्वानुभूति होती है उसीसमय स्वरूप में स्थितिरूप स्वरूपाचरणचारित्र होता है।
ज्ञानावरणकर्मोदय या क्षयोपशम के कारण तो स्वरूपाचरणचारित्र का अभाव या सद्भाव हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानावरण कर्मोदय या क्षयोपशम से ज्ञानका अभाव या सद्भाव तो संभव है, क्योंकि ज्ञानावरण का कार्य ज्ञान को प्रावरण करने का है चारित्र को आवरण करने का नहीं है । चारित्र का घातक चारित्रमोहनीयकर्म है। दूसरी बात यह है कि लब्धि और उपयोग में दो अवस्था क्षायोपशमिकज्ञान और दर्शन में तो होती है, किन्तु चारित्र में लब्धि और उपयोगरूप में दो अवस्था संभव नहीं है। अतः यह प्रश्न बना रहता है कि चारित्रमोहनीयकर्म की किस प्रकृति के उदय से चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का अभाव रहता है और चारित्रमोहनीयकर्म की किस प्रकृति के अनुदय से चतुर्थगुणस्थान में प्रगट हो जाता है। यदि यह कहा जाय कि अनन्तानुबन्धी के उदय से स्वरूपाचरणचारित्र का प्रभाव होता है तो अनन्तानुबन्धी के उदय का प्रभाव तोहरसमय रहता है इसलिये हरसमय चतुर्थगुणस्थान में स्वरूप में स्थिरतारूप अथवा स्वरूप में रमणतारूप स्वरूपाचरणचारित्र रहना चाहिये, किन्तु ऐसा किसी को इष्ट नहीं है । दूसरे यदि चतुर्थगुणस्थान में हरसमय स्वरूप में स्थिरता या रमणता रहती है तो हरसमय बंध का अभाव या बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणीकर्म निर्जरा होनी चाहिये थी, किन्तु चतुर्थगुणस्थान में जितनी कम निर्जरा होती है उससे अधिक कर्मबन्ध होता है।
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