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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सिद्धों के क्षायिक चारित्र का सद्भाव
समाधान-(क)-श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य ने गोम्मटसारकर्मकाण्ड में सिद्धों में चारित्र का विधान निम्न गाथाओं द्वारा किया है
उवसमभावो उवसमसम्मं चरणं च तारिसं खइओ। खाइय णाणं वसण सम्म चरित्तं च दाणादी ॥१६॥ मिच्छतिये तिचउक्के वोसुवि सिद्ध वि मूलभावा हु ।
विग पण पणमं चउरो तिग दोष्णि य संभवा होति ॥२१॥ अर्थ-प्रीपशमिकभाव उपशमसम्यक्त्व और उपशमचारित्र के भेद से दो प्रकार का है। क्षायिकभाव के भेद, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र व क्षायिकदानादि हैं।। ८१६ ॥ मिथ्यारष्टि आदि तीन गुणस्थानों में तीन भाव, असंयत आदि चार गुणस्थानों में पांचों भाव, उपशम श्रेणी के चार गुणस्थानों में भी पाँचों भाव, क्षपकश्रेणी के चार गुणस्थानों में उपशम के बिना शेष चार भाव, सयोग और अयोग केवली के क्षायिक पारिणामिक और औदयिक ये तीन भाव हैं । सिद्धों के पारिणामिक और क्षायिक भाव ये दो भाव हैं।
इसप्रकार क्षायिकभावों में क्षायिकचारित्र को गिनाकर और सिद्धों में क्षायिक भावों को बतलाकर श्री नेमिचन्द्र सिमान्तचक्रवर्ती ने सिद्धों में क्षायिकचारित्र का स्पष्टरूपसे विधान किया है।
किसी भी दिगम्बर जैन प्राचार्य ने सिद्धों के क्षायिकभावों का निषेध नहीं किया है, किन्तु मात्र औपशमिक क्षायोपमिक, औदायिक व भव्यत्व पारिणामिक भावों का निषेध किया है।
यदि कहा जाय कि गो० जी० गाथा ७३२ में सिद्धों के संयम मार्गरणा का अभाव है तथा धवल पु०१ पृ० ३७८ व पु०७पृ० २१ पर सिद्धों के संयम के सद्भाव से इन्कार किया है इसलिये सिद्धों में चारित्र का अभाव है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है।
गोम्मटसार जीव काण्ड में संयममार्गणा को प्रारम्भ करते हए संयम का स्वरूप निम्न प्रकार कहा है
वदसमिदि कसायाणं दंडाण तहिदियाण पंचण्डं।
धारणं पालण णिग्गह चागजओ संजमो मणिओ ॥४६॥ अर्थ-हिंसा, चौर्य, असत्य, कुशील, परिग्रह इन पांच पापों के बुद्धिपूर्वक सर्वथा त्यागरूप पंचमहावत को धारण करना, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग इन पांच समितियों को पालना, चार प्रकार की कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का त्याग तथा पांच इन्द्रियों का जय इसको संयम कहते हैं।
इस प्रकार का संयम सिद्धों में नहीं है तथा केवलियों में नहीं है इसलिये केवलियों में उपचार से संयम कहा है
'अभेवनयेन ध्यानमेव चारित्रं तच्च ध्यानं केवलिनाम्पचारेणोक्त चारित्रमध्यपचारेणेति।'
प्रवचनसार पृ० ३०८ अर्थ-प्रभेदनय से ध्यान ही चारित्र है और वह ध्यान केवलियों में उपचार से कहा गया है इसलिये केवलियों में चारित्र भी उपचार से है. किन्तु क्षायिकचारित्र तो अनुपचार से है।
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