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[पं० रतनचन्द जन मुख्तार :
अर्थात-व्रतरहित सम्यग्दृष्टि का तप महागुण-महोपकारक नहीं है। अविरतसम्यग्दृष्टि का तप हस्तिस्नान के समान है अथवा छेद करनेवाले वर्मा के समान है। जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मलता धारण नही करता है क्योंकि अपनी शड से गीले शरीर पर धूलि डालकर सर्व अंग मलिन करता है वैसे तप से कर्माश निर्जीर्ण होने पर भी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंयम के द्वारा बहतर कर्माश को ग्रहण करता है। दूसरा दृष्टान्त वर्मा का है-जैसे वर्मा छेद करते समय डोरी बांधकर घुमाते हैं उससमय उसकी डोरी एक तरफ खुलती है तो दूसरी तरफ से दृढ़ वद्ध करती है। वैसे अविरतसम्यग्दृष्टि का पूर्वबद्धकर्म निर्जीर्ण होता हुआ उसीसमय असंयम द्वारा नवीन कर्म बंध जाता है। अतः प्रयतसम्यग्दृष्टि का तप भी महोपकारक नहीं होता है ।
अतः श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने 'चारित्तं खलु धम्मो' इस वाक्य के द्वारा चारित्र को धर्म कहा है। अनेक विवक्षामों से इस सम्यकचारित्र के नानाप्रकार से भेद किये गये हैं।
सम्यकचारित्र को घातनेवाला चारित्रमोहनीयकर्म है। चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से उपशमचारित्र, क्षयोपशम से क्षयोपशमचारित्र, क्षय से क्षायिकचारित्र उत्पन्न होता है। क्षयोपशमचारित्र में देशघातिया संज्वलनकषाय का उदय रहता है अतः यह निर्मल नहीं होता, किंतु उपशमचारित्र तथा क्षायिकचारित्र में चारित्रमोहनीयकर्म को किसी प्रकृति का भी उदय नहीं होता। अतः उपशांतमोह और क्षीणमोह अर्थात् ग्यारहवें, बारहवेंगुणस्थानों में भी चारित्र निर्मल अथवा पूरणं वीतरागरूप होता है। इन दोनों गुणस्थानों का नाम छ (तत्त्वार्थसूत्र अ० ९ सूत्र १०)। इस वीतरागचारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होता है
"संपद्यते हि दर्शनशानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान मोक्षः तत् एव च सरागाई वासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपो बन्धः।" ( प्रवचनसार गाथा ६ को टीका )।
अर्थ-दर्शन और ज्ञान जिसमें प्रधान हैं ऐसे वीतराग चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यदि वह चारित्र सराग है तो उस सरागचारित्र से देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती के विभव, जो संक्लेशरूप हैं, का बंध होता है। श्री १०८ कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है
रत्तो बंधदि कम्मं, मुचदि जीवो विरागसंपत्तो।
ऐसो जिणोबदेसो तह्मा कम्मेसु मा रज्ज ॥ १५॥ ( समयसार ) अर्थात-रागीजीव कर्म बांधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है।
इसलिये ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवेंगुणस्थानों में योग के कारण मात्र ईर्यापथ-आस्रव है और पूर्ण वीतरागता के कारण निर्जरा है, बंध नहीं है ।
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये चारित्र के पांच भेद हैं। कहा भी है
"सामायिकच्छेवोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।" तत्त्वार्थसूत्र ९।१८ ।
इन पाँच चारित्रों में से सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय ये चार चारित्र तो सकषायजीव के होते हैं, किन्तु यथाख्यातचारित्र अकषायजीव के होता है। यह यथाख्यातचारित्र ही सर्वोत्कृष्ट है। इसमें चारित्रमोह के उदय का सर्वथा अभाव होने से संयम लब्धिस्थान एक है। कहा भी है
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