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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। अर्थ-लोभसंज्वलन सूक्ष्मसाम्पराय-दसवें गुणस्थान के अन्त में विनाश को प्राप्त होता है। पहिले ही मोह का क्षय करके और अन्तर्मुहूर्त कालतक क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और
यकर्म का एक साथ क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। लोभसंज्वलन को कृष करके, सूक्ष्मसाम्परायक्षपकत्व का अनुभव करके, समस्त मोहनीय का निर्मूल नाश करके क्षीणकषायगुणस्थान पर आरोहण करता है।
"जाधे चरिमसमयसुहुम सांपराइयो जादो तावे............मोहणीयस्सटिविसंतकम्मं तत्थ जस्सदि । तदो स काले पढमसमय-खोण-कसाओ जादो।" धवल ६ पृ० ४१०.११
अर्थात्-जिससमय अन्तिमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक ( दसवाँगुणस्थान ) होता है उससमय में मोहनीय का स्थितिसत्त्व वहां नष्ट हो जाता है। चारित्रमोहनीय के क्षय के अनन्तरसमय में प्रथमसमयवर्ती क्षीणकषाय होता है।
इसप्रकार सभी आचार्यों ने दसवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय स्वीकार किया है। इसीलिये बारहवेंगुणस्थान की क्षीणमोह संज्ञा है। इतना स्पष्ट विवेचन होते हुए भी न मालम जैनसंदेश में 'संपूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय बारहवेंगुणस्थान के अन्त्यसमय तक हो जाता है' यह वाक्य किस आधार पर लिखा गया है। श्री सम्पादक महोदय भी इतनी स्थूल अशुद्धि को नहीं पकड़ सके, यह भी एक आश्चर्य की बात है।
शंका-केवलीभगवान के भावमन का अभाव है उनके ध्यान किसप्रकार संभव है ? क्योंकि 'एकाप्रचिन्ता निरोधः' ध्यान का लक्षण केवली में घटित नहीं होता।
समाधान-मलाचार के पंचाचार अधिकार की गाथा २३२ की टीका में इसी प्रकार की शंका का निम्न प्रकार उत्तर दिया है, अर्थात् श्री केवलीभगवान में उपचार से ध्यान माना है।
"तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में उपचार से ध्यान माना जाता है। पूर्व प्रवृत्ति की अपेक्षा लेकर अर्थात् पूर्वगुणस्थानों में मन की एकाग्रता करके ध्यान होता था। इस पूर्व की प्रवृत्ति की अपेक्षा लेकर अब भी मनो. व्यापार के अभाव में भी ध्यान की कल्पना की गई है। पूर्वकाल में जिसमें घी भरा हआ था ऐसे घड़े को कालान्तर में घी के अभाव में घृत का घड़ा, ऐसा उपचार से कहते हैं। अथवा दसवें प्रादि गुरणस्थानों में वेद का अभाव है तो भी दसवें के पूर्व गुणस्थानों में वेद का सद्भाव था उसकी अपेक्षा लेकर आगे के गुरणस्थानों में भी उसका सदभाव उपचार से माना जाता है।" [ देवचन्द्र रामचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित मूलाचार ]
"विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तव्यपदेशमावधानमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात् ।" धवल पु. १ पृ. ३३३
अर्थ-विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषणयुक्त संज्ञा को धारण करनेवाली मनुष्यगति में चौदहगुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता अर्थात् वेद का नाश हो जाने पर भी मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनी में चौदहगुणस्थान संभव हैं।
चास्तिकाय गाथा १५२ की टीका में श्री जयसेनाचार्य तथा श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने श्री केवलीभगवान के उपचार से ध्यान कहा है
"तत्पूर्वसंचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाशं गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं मण्यते ।.......केवलिनामुपचारेण ध्यानमिति वचनात।"
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