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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार।
जीवसहावं जाणं अप्पड हवसणं अणण्णमयं । चरियं च तेस जियवं अस्थित्तमणिवियं भणियं ॥१५४॥
अर्थ-जीव का स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन है, जो कि जीव से भिन्न है। उस ज्ञान, दर्शन में नियतरूप अस्तित्व जो कि अनिदित है वह चारित्र है।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इसकी संस्कृत टीका में कहा है
"विविधं हि किल संसारिषु चरित्त--स्वचरित्त परचरित च, स्वसमयपरसमयावित्यर्थः तत्र स्वभावावस्थितास्तिस्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं परचरितम् । यत्स्वमावावस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितस्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्वितं तवत्र साक्षान्मोक्षमार्गत्वेनावधारणीयमिति ।"
अर्थ संसारियों में चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है-(१) स्वचारित्र और (२) परचारित्र, स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है। स्वभाव में अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र वह स्वचारित्र है और परभाव में अवस्थित अस्तित्वस्वरूप चारित्र वह परचारित्र है। उन दो प्रकार के चारित्र में से स्वभाव में अवस्थित अस्तित्वरूपचारित्र. जो कि परभाव में अवस्थित अस्तित्व से व्यावृत होने के कारण प्रत्यन्त अनिदित है वह यहां साक्षात मोक्षमार्गरूप से अवधारण करना ।
इसप्रकार रागद्वेष से निवृत्तिरूप जो यथाख्यातचारित्र है वह ही साक्षात् मोक्षमार्ग है ऐसा इस गाथा व टीका में कहा गया है। यद्यपि तेरहवेंगुणस्थान के प्रारम्भ में रत्नत्रय की पूर्णता हो जाती है तथापि द्रव्यमोक्ष नहीं होता । उसमें आयुकर्म बाधक कारण है।
___ आयु के क्षय होने पर शेष तीन अघातियाकम वेदनीय, नाम, गोत्र का भी क्षय हो जाता है और जीव कोदण्यमोक्ष हो जाता है। ऊध्वंगमन स्वभाव के कारण जीव ऊपर की ओर जाता है, किन्तु लोकाकाश से बाहिर धर्मास्तिकाय के प्रभाव के कारण श्री सिद्धभगवान लोकान में स्थित हो जाते हैं। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार में कहा भी है
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावह सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तण ॥ १७६ ॥
अर्थ-प्रायु के क्षय से शेष प्रकृतियों अर्थात वेदनीय, नाम, गोत्रकर्मों का सम्पूर्ण नाश होता है। फिर वे सिद्ध भगवान समयमात्र में शीघ्र लोकाग्र में पहुंचते हैं।
रत्नत्रय के घातककर्म दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और ज्ञानावरणको का क्षय हो जाने से तेरहवें गुणस्थान के प्रथमसमय में रत्नत्रय पूर्ण हो जाता है और रत्नत्रय के संपूर्ण प्रविभागपरिच्छेद व्यक्त हो जाते हैं । इस अपेक्षा से तेरहवेंगुणस्थान के प्रथमसमय में रत्नत्रय की पूर्णता हो जाती है और रत्नत्रय ही साक्षात् मोक्षमार्ग है। यह रत्नत्रय मुज्यमानमनुष्यायु की स्थिति व अनुभाग छेदने में असमर्थ है इसीलिये जितनी मनुष्यायु शेष है उतने कालतक इस जीव को अरहंतप्रवस्था में रहना पड़ता है। शेष आयुकर्म क्रमशः नाश हो जाने से समस्तकों का क्षय हो जाता है और जीव को द्रव्यमोक्ष हो जाता है। इस अपेक्षा अर्थात बाधककारण के अभाव की अपेक्षा से
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