________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८१३
सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र को प्रधानता पर विचार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'वंसणमूलो धम्मो' और 'चारित्तं खलु धम्मो" इन दो वाक्यों द्वारा यह बतलाया है कि सम्यग्दर्शन तो धर्म की जड़ है और सम्यक्चारित्र ही वास्तव में धर्म है। अर्थात् मोक्षरूपी फल सम्यक्चारित्ररूप धर्मवृक्ष पर ही लगता है। क्योंकि वृक्ष पर ही फल लगता है, वृक्ष की मूल पर नहीं लगा करता। इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि मात्र सम्यग्दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी बात को श्री कुन्दकुवाचार्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा है
"सइहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥२३७॥" [ प्रवचनसार ]
अर्थ-पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला अर्थात् सम्यग्दृष्टि भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है।
___ इसी गाथा की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है कि निज-शुद्धात्मा का ज्ञान और श्रद्धान भी हो गया ( आजकल के नवीन मत में जिसको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है, वह भी हो गया ), किन्तु संयम नहीं हुआ तो वह ज्ञान और श्रद्धान निरर्थक है।
"सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशवकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वस्मिन्नेव संयम न वर्तयति तदानाविमोहरागद्वषवासनोपजनितपरद्रव्यचक्रमणस्वरिण्याश्चि वृत्तः स्वस्मिन्नेवस्थानान्निर्वासननिःकम्पैकतत्त्वमच्छितचिववृत्यभावात्कथं नाम र
चितवत्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात । असंयतस्य व यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात । ततः संयमशून्यात श्रद्धानात ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः। अतआगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव ॥२३७॥"
यद्यपि सकल ज्ञेय पदार्थोकर प्रतिबिम्बित निर्मलज्ञानाकार आत्मा का कोई श्रद्धान भी करता है तथा अनूभव भी करता है तो भी यदि वह अपने में संयमभाव धरके निश्चल होकर नहीं प्रवर्तता तो उस सम्यग्दृष्टि के आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान तथा प्रात्मानुभूतिरूप ज्ञान संयमभाव बिना क्या करें? क्योंकि यह जीव अनादिकाल से लेकर राग, द्वेष, मोह की वासना से पर में लगा हुआ है, इसकारण इस जीव की चित्तवृत्ति पर में रमती है और अपने निष्कंप एक आत्मीक रस में मग्न नहीं होती। संयमभाव से रहित ज्ञान, श्रद्धान से सिद्धि नहीं होती। आगमज्ञान. तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयमभाव इन तीनों की एकता हो, तभी मोक्षमार्ग होता है।
इसी विषय को श्री जयसेन आचार्य ने दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है
"यथा वा स एव प्रवीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि न निवर्तते तवा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टि किं करोति न किमपि । तथा जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमादि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा कि कुन्नि किमपीति ।" [ प्रवचनसार
जैसे दीपकसहित सुआँखा नेत्रवान पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूप पतन से नहीं बचता तो उसके श्रद्धान दीपक व दृष्टि ने क्या किया? कुछ नहीं किया अर्थात कुछ कार्यकारी नहीं हुई। तैसे ही यह मनुष्य सम्यकश्रद्धान और ज्ञानसहित है, परन्तु सम्यकचारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है अर्थात चारित्र को धारण नहीं करता है तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ने उस मनुष्य का क्या हित किया ? कुछ भी हित नहीं किया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org