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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
दन्त मंजन न करने पर भी मुनि के दाँतों में जीवोत्पत्ति नहीं होती
शंका- मुनियों का एक मूलगुण दंतमंजन न करना है। जब वे दांतों से चबाकर खाते हैं तो बिना मंजन आदि किये दांत साफ तो रह नहीं सकते, तब उसमें जीवोत्पत्ति हो जावेगी । फिर दंतमंजन न करना कैसे ठीक हो सकता है ?
समाधान - भोजन के पश्चात् कुरलों के द्वारा दांतों व मुख की शुद्धि हो जाती | अन्न आदि एक करण भी नहीं रहता है। मुनि सात्विक शुद्ध ऊनोदर भोजन करते हैं अतः उनके दाँतों में कोई रोग उत्पन्न नहीं होता जिससे कि जीवोत्पत्ति की सम्भावना हो । शरीर-संस्कार के कारण दाँतों को चमकाने के लिये मंजन किया जाता है । मुनियों के लिये शरीर-संस्कार वर्जित है, जैसा कि तस्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र ७ में 'स्वशरीर-संस्कारत्यागः ' के द्वारा कहा गया है ।
भाज से ५०-६० वर्ष पूर्व अधिकतर मनुष्य दंतमंजन नहीं करते थे, क्योंकि भोजन सात्विक था और मात्र दो बार घर पर ही अल्प भोजन करते थे । उनके दाँतों में कभी जीवोत्पत्ति नहीं होती थी ओर न मुख से दुर्गंध श्राती थी। अब भी जो इस नियम का पालन करते हैं उनको दंतमंजन की आवश्यकता नहीं होती है ।
-- जै. ग. 10-12-70/ VI / ट. ला. जैन, मेरठ केशलोंच में राख का उपयोग
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शंका – मुनि केशलोंच करते समय राखड़ लगाते हैं । इसमें उद्दिष्ट दोष ( मुनि के लिये राखड़ तैयार करने का दोष ) लगता है या नहीं ? नहीं लगता तो क्यों ?
- औद्दे शिक दोष आहार संबंधी होता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मूलाचार में कहा हैदेवदuring किविट्ठ चावि जं तु उद्दिसियं ।
कदमणसमुद्दे सं चदुब्विहं वा समासेण || ६ | ६ || ( मूलाचार )
समाधान -
अर्थ-देवताओं के लिये, पाखंडी साधुनों के लिये, दीनजनों के लिये जो आहार तैयार किया जाता है उसे अद्देशिकआहार कहते हैं। उसके चार भेद हैं ।
सामान्यांश्च जना कांश्चित्तथा पाषंडिनोऽखिलान् । श्रमणांश्च परिव्राजकादीनिग्रंथ उद्दिश्य यत्कृतं चान्नमौद्द शिकं तत्सवं
सयतानु ॥ चतुविधं ।
मुनिभिस्त्याज्यं पूर्व सावद्यदर्शनात् ॥
सामान्य मनुष्यों के उद्देश्य से, पाखंडियों के उद्देश्य से, परिव्राजक आदि श्रमणों के उद्देश्य कर और निग्रंथ संयतों के उद्देश्य कर जो अन्नरूप आहार बनाया जाता है चारप्रकार का औद्देशिकदोष है । मुनियों को यह सब छोड़ने योग्य है, क्योंकि इनमें सावद्य देखा जाता है ।
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केशलोंच करते समय हाथ की सचिक्कणता को दूर करने के लिए राख का प्रयोग किया जाता है । यह राख प्रायः जंगल आदि में उपलब्ध होती है । यदि श्रावक भी दे देवे तो भी उद्देशिक दोष नहीं लगता है, क्योंकि राखड़ अन्न नहीं है ।
- जै. ग. 21-8-69 / VII / ब्र. हीरालाल
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