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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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पण्डितं पंडिताविस्थ पंडितं बालपण्डितम् । चतुर्थ मरणं बालं बालबालं च पंचमम् ॥२॥
टोका-सुतवे सम्मते वा जाणे चरणे य पंडिदं जम्हा । पंडिद मण्णं भणिदं चवुम्विहं तस्विहि जए॥ एवंविध चतुविधपण्डितानां मध्ये अतिशयितं पांडित्यं यस्य ज्ञानदर्शनचारित्रतपसुस पंडित पंडिनःसम्पूर्ण क्षायिकज्ञानादिरित्यर्थः । ततोऽन्यः पंडितः प्रमत्तसंयताविः । पंडाह रत्नत्रयपरिणता बुद्धिः संजाता अस्येति पण्डितः । अतएव संयता. संयतो बालपण्डित इत्युच्यते । कुतश्चित् असूक्ष्मादसंयमादनिवृत्तित्वाद्वालस्ततोऽन्यत्र रत्नत्रये परिणतबुद्धित्वाच्च पंडितः, बालश्चासौ पंडितश्च बालपण्डितः। यतश्च सर्वत्रासंयतोऽसंयतसम्यग्दृष्टिस्ततो यथोक्त पाण्डित्यवियुक्तत्वादबाल इत्युच्यते । दर्शनज्ञानद्वये सत्यपि सर्वथा चारित्ररहित्वात अतएव मिथ्यादृष्टिर्बालबाल इत्युच्यते । सम्यक्त्वस्याप्यभावेन प्राप्त बाल्यातिशयत्वात् ।
भावार्य-ज्ञानदर्शनचारित्र और तप में जिसके अतिशय पाण्डित्य है वह 'पण्डितपण्डित' मरण है अर्थात् सम्पूर्ण क्षायिकज्ञानादि वाले के ( केवली)। प्रमत्तसंयतादि मुनियों का 'पण्डित' मरण है। सूक्ष्म असंयम का अंग होने से संयतासंयत का 'बालपण्डित' मरण है। सर्वथा संयम का अभाव होने से असंयतसम्यग्दृष्टि के 'बाल' मरण है। सम्यक्त्व का भी अभाव होने से मिथ्याइष्टि के प्रतिशय बाल अर्थात् 'बालबाल' मरण है । ( मूलाराधना )
-जं. सं. 31-1-57/VI/ मो. ला. स., सीकर समाधिमरण का काल १२ वर्ष कबसे माना जाय ? शंका-समाधिमरण का उत्कृष्टकाल बारहवर्ष बतलाया है उसका क्या अभिप्राय है ? आयु का तो पता नहीं कि कितनी शेष है और बारह वर्ष की सल्लेखना लेने पर तो बारह वर्ष पूर्ण होने पर शरीर छोड़ना ही होगा।
समाधान-बाह्य लक्षणों के द्वारा आयु का ज्ञान हो सकता है । निमित्त ज्ञानियों के द्वारा भी शेष आयु का ज्ञान हो सकता है। जिनको इसप्रकार ज्ञान हो गया उन्हीं के लिये भक्तप्रत्याख्यान का उत्कृष्टकाल बारह वर्ष कहा गया है। भक्तप्रत्याख्यान का जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है। मध्यमकाल के अनेक भेद हैं। प्रतः जिनकी आयु बारह वर्ष की शेष रह गई है वे ही बारह वर्ष का भक्तप्रत्याख्यानव्रत ले सकते हैं।
-जै. ग. 3-6-71/VI/र. ला.पोन, मेरठ
सन्यास कब धारण किया जाय ? शंका-जो गत वर्ष कोटा अजमेर में ब्रह्मचारी अवस्था में मरण से कुछ घण्टे पूर्व मुनि बने वह कहाँ तक ठीक है। भगवती आराधनासार में तो सल्लेखना १२ वर्ष पूर्व में प्रारम्भ होती है।
समाधान-गृहस्थ के लिये मरण के समय सल्लेखनाव्रत भी अत्यन्त आवश्यक है। अर्थात् मरण समय संयम धारण करना चाहिये ।
"गृहस्थस्य पञ्चायुवतानि ससशीलानि गुणव्रत शिक्षावतभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्त्वपूर्वकाः सल्लेखनान्तश्च ।" ( श्लोकवार्तिक २१ )
गृहस्थ के अहिंसादि पांच अणुव्रत और गुणव्रत व शिक्षाव्रत के भेद से सात शीलव्रत ये बारह व्रत हैं। इन बारह वतों के पूर्व में सम्यक्त्व है और अन्त में सल्लेखना है।
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