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ध्यक्तित्व और कृतित्व ।
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विज्ञायेत्यखिलाः कार्याः संघाटकेन संयतः। विहारस्थितियोगद्यास्तन्निविघ्नाय श्रद्धये ॥२॥ इमां तीर्थकृतामाज्ञामुल्लंघ्य ये कुमार्गगाः । स्वेच्छावासविहारादीनकुर्वतेदृष्टिदूरगाः ॥ ८३ ॥ तेषामित्व नूनं स्याहग्ज्ञानचरणक्षयः । कलंकता च दुस्त्याज्या ह्यपमानः पदेपदे ॥८४॥ परलोके सर्वज्ञाज्ञोल्लंघनाद्यति पापतः । श्वभ्रादिदुर्गतौघोरे भ्रमणं च चिरंमहत् ।।८५॥ इत्यपायं विदित्वात्रामुत्रचक विहारिणाम् । अनुल्लंघ्यां जिनेन्द्राज्ञां प्रमाणी कृत्यमानसे ॥८६॥ स्थितिस्थान विहारादीन समुदायेन संयताः । कुर्वन्तु स्वगणादीनां वृद्धये विघ्नहानये ॥८७॥ मूलाचार प्रदीप सप्तम अधिकार
यह पंचमकाल मिथ्यादृष्टि और दुष्टों से भरा हुआ है । तथा इसकाल में जो मुनि होते हैं वे हीनसंहनन को धारण करनेवाले और चंचल होते हैं। ऐसे मुनियों को इस पंचमकाल में दो, तीन चार प्रादि की संख्या के समुदाय से ही निवास करना, समुदाय से विहार करना और समुदाय से ही कायोत्सर्ग आदि करना कल्याणकारी होता है। भगवान जिनेन्द्र की वाणी के अनुसारी ग्रन्थों में यतियों के समस्त शुभाचार गुण और आत्मा की शुद्धता की वृद्धि के लिये कहे हैं, इसलिये अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये यह पंचमकाल विषमका के शरीर अन्न के कीड़े होते हैं तथा उनका मन स्वभाव से ही चंचल होता है और पंचमकाल के सभी मनुष्य शक्तिहीन होते हैं । प्रतएव एकाकी विहार करने वालों के व्रतादिक स्वप्न में भी कभी निर्विघ्न पल नहीं सकते। तथा उनके मन की शद्धि भी कभी नहीं हो सकती और न उनकी दीक्षा कभी निष्कलंक रह सकती है। इन सब बातों को समझकर मुनियों को अपने विहार, निवास व योगधारण आदि समस्त कार्य निर्विघ्न पूर्ण करने के लिये तथा उनको शुद्ध रखने के लिए संघ के साथ ही विहार आदि समस्त कार्य करने चाहिये, अकेले नहीं। तीर्थकर परमदेव की इस प्राज्ञा को उल्लंघन कर जो अकेले विहार व निवास आदि करते हैं उनको सम्यग्दर्शन से रहित समझना चाहिये। ऐसे मुनियों के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र नष्ट हो जाते हैं। इस लोक में उनका कलंक दूस्त्याज्य हो जाता है और पद-पद पर उनका अपमान होता है। भगवान सर्वज्ञदेव की आज्ञा को उल्लंघन करनेरूप महापाप से वे साध परलोक में भी नरकादिक दुर्गतियों में चिरकाल तक महा घोर दुखों के साथ परिभ्रमण किया करते हैं। इसप्रकार अकेले विहार करनेवाले मुनियों का इस लोक में नाश होता है और परलोक भी नष्ट होता है। यही समझकर अपने मन में भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को ही प्रमाण मानना चाहिये और उसको प्रमाण मानकर उसका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये। मुनियों को अपने गुणों की वृद्धि करनेके लिये तथा विघ्नों को शांत करने के लिये अपना निवास व विहार आदि सब समुदाय के साथ ही करना चाहिये, अकेले नहीं रहना चाहिये, न विहार ही करना चाहिये।
गुरुपरिवादो सुदनुच्छेदो, तित्थस्स मइलणा जडदा । भिभलकूसीलपासस्थदा य उस्सारकप्पम्हि ॥ १५१ ॥ मू. चा. समाचाराधिकार
श्री वसुनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने भी मुलाचार की इस गाथा की टीका में कहा है।
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