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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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अर्थ- वास्तव में सम्यग्दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म है। जो या तो केवलज्ञान का विषय है या अवधि और मनः पर्ययज्ञान का विषय है ।।३७५ ।। यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों का किचित् भी विषय नहीं है । साथ ही यह देशावधिः ज्ञान का भी विषय नहीं है, क्योंकि इन ज्ञानों के द्वारा सम्यग्दर्शन की जानकारी नहीं होती है ।
-- मं: 19-7-56/1/ ला. रा. दा. कैराना
शंका
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- मुनि पहले द्रव्यलिंग धारण करता है या भावलिंग ?..
समाधान - द्रव्यलिंग और भावलिंग धारण करने पर ही मुनि होता है। अतः यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मुनि पहले कौनसा लिग धारण करता है? मुनि होने के पश्चात् लिंग धारण नहीं किये जाते, किंतु लिंग धारण कर लेने पर मुनि होता है।
जो सम्पष्टि जीव मोक्ष का साक्षात् कारण ऐसी मुनि अवस्था को धारण करना चाहता है वह प्रथम वस्त्रादि परिग्रह का त्याग कर यथाजात ( नग्न ) होता है, सिर-दाढ़ी मूछ के बालों का लोच करता है इत्यादि क्रियाओं के द्वारा बहिरंग लिंग को धारण करने से मूर्छा और प्रारम्भ से रहित तथा उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त होता है। तत्पश्चात् श्रमण (मुनि) होने का इच्छुक वह पुरुष गुरु को नमस्कार करके व्रत सहित क्रिया को सुनकर स्वीकार कर आत्म स्वरूप में स्थित होते हुए भ्रमण (मुनि) होता है। प्र. सा. गा. २०५ २०७
- जै. ग. 28-12-61 / ........
१. लिंगपूर्वक ही भावलिंग होता है २. भावलिंगी के ही द्रव्यलिंग का याथार्थ्य है
शंका- भावपाहुड़ गाथा २ में भावलिंग प्रथम कहा । श्री जयचन्दजी ने टीका में ब्रलिंग के पहले भावलिंग होय कहा । भावपाड़ गाथा ३४ की टीका के भावार्थ में द्रव्यलिंग को भावलिंग का साधन कहकर मोक्षमार्ग में प्रधानता मावलिंग की कही । भावपाहूड़ गाया ७३ में तो पीछे द्रव्यलिंग की बात कही है। जंन समाज के कुछ मान्य विद्वानों ने प्रथम भावलिंग पीछे द्रव्यलिंग माना है। उपर्युक्त कथन का क्या अभिप्राय समझना ? क्या पहले सातवाँ गुणस्थान हो जाय है बाद में वस्त्र स्याग आदि होय है ? क्या पहले पांच गुणस्थान होय बाद में देशव्रत ग्रहण करें ? श्री कुरंदकुव आचार्य के अभिप्राय को व टीकाकार के अभिप्राय की पुष्टि अन्य आचार्य के कथन से कैसे होती है ? निमित्त उपादान, निमित्त नैमित्तिक, कारण-कार्यं साधन - साध्य, निश्चयव्यवहार दृष्टि से समाधान करने की कृपा करें ?
समाधान - प्रत्याख्यान ( त्याग ) के दो भेद हैं। एक द्रव्यप्रत्याख्यान दूसरा भावप्रत्याख्यान' द्रव्यप्रत्याख्यान को द्रयलिंग और भावप्रत्याख्यान को भावलिंग समझना चाहिये। समयसार गाया २८३ २८५ की टीका में भी अमृतचन्द्र आचार्य ने लिखा है 'मप्रतिक्रमण मोर अप्रत्याख्यान का जो वास्तव में द्रव्य और भाव के भेव से द्विविध का उपदेश है वह द्रव्य और भाव के निमित्तनैमित्तकत्व को प्रगट करता है। इसलिये यह निश्चित हुआ कि पर-द्रव्य निमित्त हैं और आत्मा के रागादि भाव नैमित्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जावे तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान का कर्तृत्व के निमित्तरूप का उपदेश निरर्थक श्रात्मा को रागादिभावों का निमित्तत्व आ जायगा, जिससे नित्य कर्तृत्व का का अभाव सिद्ध होगा। इसलिये परद्रव्य ही रागादि भावों का निमित्त है
होगा, और वह निरर्थक होने पर एक प्रसंग आ जायगा, और उससे मोक्ष और ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि
१. समयसार गाथा २८३-२८५ ।
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